Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, अंगोपांग, वर्ण, रस, एकेन्द्रिय शरीर धारण करे उसे एकेन्द्रिय जाति नामकर्म गन्ध, स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, कहते है। इसी प्रकार द्वीन्द्रियादि का स्वरूप बनता है। उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रस, स्थावर,
३. शरीर नामकर्म सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण,
जिसके उदय से आत्मा के लिए शरीर की रचना प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेय, अस्थिर, अशुभ,
होती है वह शरीर नामकर्म है। यह कर्म आत्मा को दुर्भग, अनादेय, दुःस्वर, सुस्वर, अयशस्कीर्ति, यशस्कीर्ति,
आधार या आश्रय प्रदान करता है। क्योंकि कहा है कि
"यदि शरीर नामकर्म न स्यादात्मा विमक्तः स्यात-५॥ अर्थात निर्माण और तीर्थकरत्व ।ये ही नामकर्म के भेद (प्रकार) कहे जाते हैं। इनका विवेचन प्रस्तुत है।
यदि यह कर्म न हो तो आत्मा मुक्त हो जाय। इसके भी
पाँच भेद हैं - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस् १. गति नामकर्म
और कार्मण शरीर । जिसके उदय से जीव के द्वारा, ग्रहण गति, भव, संसार – ये पर्यायवाची शब्द हैं । जिसके । किये गये आहार वर्गणा रूप पुद्गलस्कन्ध रस, रुधिर, उदय से आत्मा भवान्तर को गमन करता है वह गति । मांस, अस्थि, मज्जा और शुक्र स्वभाव से परिणत होकर नामकर्म है। यदि यह कर्म न हो तो जीव गति रहित हो औदारिक शरीर रूप हो जाते हैं उसका नाम औदारिक जाएगा। इसी गति नामकर्म के उदय से जीव में रहने से शरीर है। इसी प्रकार अन्य भेदों का स्वरूप बनता है। आयु कर्म की स्थिति रहती है और शरीर आदि कर्म उदय
४. बन्धन नामकर्म को प्राप्त होते है। नरक. तिर्यंच, मनष्य और देवगति - ये
शरीर नामकर्म के उदय से जो आहार-वर्गणारूप इसके चार भेद हैं। जिन कर्मस्कन्धों के उदय से आत्मा
पुद्गल-स्कन्ध, ग्रहण किये उन पुद्गलस्कन्धों का परस्पर को नरक, तिर्यंच आदि भव प्राप्त होते हैं, उनसे युक्त
संश्लेष सम्बन्ध जिस कर्म के उदय से हो उसे बंधनजीवों को उन-उन गतियों में नरक गति, तिर्यंचगति आदि
नामकर्म कहते हैं। यदि यह कर्म न हो तो यह शरीर बालू संज्ञाएँ प्राप्त होती हैं।
द्वारा बनाये हुए पुरुष के शरीर की तरह हो जाए। इसके २. जाति नामकर्म
भी औदारिक, वैक्रियिक शरीर बन्धन आदि पाँच भेद ___जिन कर्मस्कन्धों से सदृशता प्राप्त होती है, जीवों के उस सदृश परिणाम को जाति कहते हैं । अर्थात् उन
५. संघात नामकर्म गतियों में अव्यभिचारी सादृश से एकीभूत स्वभाव
जिसके उदय से औदारिक शरीर छिद्ररहित परस्पर (एकरूपता) का नाम जाति है। यदि जाति नामकर्म न हो
प्रदेशों का एक क्षेत्रावगाह रूप एकत्व प्राप्त हो उसे संघात तो खटमल खटमल के समान, बिच्छू बिच्छू के समान इसी ।
नामकर्म कहते हैं। इसके भी औदारिक-शरीर- संघात प्रकार अन्य सभी प्राणी सामान्यतः एक जैसे नहीं हो आदि पाँच भेद हैं। सकते । जाति के पाँच भेद हैं - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, ६. संस्थान नामकर्म चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इनके लक्षण इस प्रकार हैं- जिसके उदय से औदारिक आदि शरीर के आकार जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय जाति में पैदा हो अर्थात् की रचना हो वह संस्थान नामकर्म है। इसके छह भेद हैं
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जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में
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