Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
कहते हैं। दुर्भाग्य यह है कि जिन शौरसेनी आगमों की दुहाई दी जा रही है, उनमें से अनेक आगम ५० प्रतिशत से अधिक अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हैं । श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य आगमों में प्राकृत के रूपों का जो वैविध्य है, उसके कारणों की विस्तृत चर्चा मैंने अपने लेख 'जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन : एक विमर्श' सागर जैन विद्या भारती भाग १, पृ. २३६ - २४३ में की है । प्रस्तुत प्रसंग में उसका निम्नलिखित अंश दृष्टव्य है
“जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्धमागधी तथा शौरसेनी ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया जा सकता हैं । वस्तुतः इन ग्रन्थों में हुए भाषिक परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण हैं, जिन पर हम क्रमशः विचार करेंगे -
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१. भारत में वैदिक परम्परा में वेद वचनों को मंत्र रूप में मानकर उनके स्वर व्यंजन की उच्चारण योजना at अपरिवर्तनीय बनाये रखने पर ही अधिक बल दिया गया। उनके लिए शब्द और ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण रही और अर्थ गौण रहा। यही कारण है कि आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो वेदमंत्रों की उच्चारण शैली, लय आदि के प्रति तो अत्यन्त सतर्क रहते हैं, किन्तु वे उनके अर्थों को नहीं जानते । यही कारण है कि वेद शब्द रूप में यथावत् बने रहे। इसके विपरीत जैन परम्परा में यह माना गया कि तीर्थंकर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं । उनके वचनों को शब्द रूप तो गणधर आदि के द्वारा दिया जाता है । अतः जैनाचार्यों के लिए अर्थ या कथन का तात्पर्य ही प्रमुख था। उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल नहीं दिया । शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाए, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना चाहिए । यही जैन आचार्यों का प्रमुख लक्ष्य रहा । शब्द रूपों की उनकी इस उपेक्षा के फलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते
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गये। इसी क्रम में ईसा की चतुर्थ शती में अर्धमागधी आगमों के शौरसेनी प्रभावित और महाराष्ट्री प्रभावित संस्करण अस्तित्व में आये ।
२. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए उसका दूसरा कारण यह था कि जैन भिक्षु संघ में विभिन्न प्रदेशों के भिक्षुगण सम्मिलित थे । अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी उच्चारण शैली में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती थी । फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम साहित्य के भाषिक स्वरूप में भिन्नताएँ आ गयीं ।
३. जैन भिक्षु सामान्यतः भ्रमणशील होते हैं । उनकी भ्रमणशीलता के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर अन्य प्रदेशों की बोलियों का प्रभाव भी पड़ता ही था। फलतः आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन हुआ और उनमें तत्- तत् क्षेत्रीय बोलियों का मिश्रण होता गया। उदाहरण के रूप में जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी प्रदेशों में अधिक विहार करता है, तो उसकी भाषा में पूर्व और पश्चिम दोनों की ही बोलियों का प्रभाव आ जाता है । फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम के भाषिक स्वरूप की एकरूपता समाप्त हो गई ।
४. सामान्यतया बुद्धः के वचन बुद्ध के निर्वाण के २००-३०० वर्ष के अन्दर ही अन्दर लिखित रूप में आ गए। अतः उनके भाषिक स्वरूप में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया, तथापि उनकी उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही है । आज भी लंका, बर्मा, थाईलैण्ड आदि देशों के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है, फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता है । इसके विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घकाल तक लिखित रूप में नहीं आ सका । वह गुरुशिष्य परम्परा से मौखिक ही चलता रहा । फलतः
जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ?
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