Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
View full book text
________________
प्रवचन-पीयूष-कण
हमारे सैनिक अपने जीवन को दांव पर लगाकर वहां पहरा देते हैं।
वे ऐसा क्यों करते हैं? अपने देश की सीमाओं की रक्षा के लिए वे वहां तैनात रहते हैं। देशभक्ति का जज्वा उनमें अदम्य वल और अखण्ड साहस भर देता है। दुश्मन की गोलियों को वे अपनी छाती पर तो झेल लेते हैं पर दुश्मन के कदम अपने देश की धरती पर नहीं पड़ने देते।
सैनिक जैसा साहस, समर्पण और शौर्य अध्यात्म क्षेत्र में भी अपेक्षित है। अपितु साधक को सैनिक से भी बड़े पराक्रम की आवश्यकता होती है। उसे अपने आत्मक्षेत्र को आत्मशत्रुओं से मुक्त कराने के लिए एक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ती है। भौतिक आकर्षणों से मुक्त होना पड़ता है और सतत अप्रमादी रहकर तप के द्वारा संचित कर्मकल्मष को मिटाना पड़ता है। ... मर्यादाएं : अपेक्षित-उपेक्षित
हमारा मन सधा नहीं है अतः हमें परहेज की जरूरत है। मन सध जाए तो परहेज की कोई जरूरत नहीं। मर्यादाएं छद्मस्थों के लिए होती हैं। केवलज्ञानियों और पूर्ण आत्माओं के लिए कोई मर्यादा नहीं। लोक में रहनेवाले देव-मनुष्य और तिर्यञ्च सब अल्पज्ञ हैं। सर्वज्ञ नहीं हैं। सर्वज्ञत्व की साधना के लिए मर्यादाएं किश्ती के समान है। दूसरे तट पर पहुंचकर किश्ती को छोड़ ही देना पड़ता है। वैसे ही मर्यादाएं अल्पज्ञों के लिए अपरिहार्य हैं पर सर्वज्ञों के लिए परिहार्य हो जाती हैं। उन्हें उनकी अपेक्षा नहीं रह जाती है। ...
व्यसन विष हैं सप्त कुव्यसन का त्याग आज के युग की महति आवश्यकता है। कुव्यसनों के त्याग के बिना सम्यग्दर्शन
की प्राप्ति सम्भव नहीं है। व्यसन मुक्त जीवन ही धर्मसंयुक्त जीवन बन सकता है। आप रुग्ण हैं तो अमृत भी आपके लिए विष हो जाता है। उचित और स्वच्छ पात्र में ही अमृत अमृत रह सकता है।
व्यसन जीवन रूपी पात्र को अपात्र बना देते हैं। फिर आप उस पात्र में श्रावकत्व का अमृत डालिए अथवा श्रमणत्व का अमृत डालिए, वह अमृत उस पात्र का योग पाकर विष बन जाएगा।
दिगम्बर आचार्यों ने तो यहां तक कहा है कि जिसके जीवन में सप्त कुव्यसन हैं उसे श्रावक नहीं कहना चाहिए। पर हमारे यहां.....हमारे यहां स्थिति विपरीत है। हमारे यहां तो वह अध्यक्ष भी बन सकता है। मंत्री भी बन सकता है। उसके अन्दर जितने कुव्यसन हों उसे उतने ही अधिक टाइटल मिलते हैं।
पतन है यह हमारा । इसे रोकिए। अपनी समाज में उसे ही पदाधिकारी चुनिए जो व्यसन मुक्त हो । जो शेष समाज के लिए आदर्श बन सके।
व्यसन विष हैं। आत्मघातक हैं। इनसे मुक्ति पाइए।...
__ अहंकार टूटे जो व्यक्ति जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, तप और ज्ञान का जितना अहंकार करता है उसके ये गुण उतने ही सिकुड़ जाते हैं। एक छोटे से दायरे में आ जाते हैं। विनम्र व्यक्ति के ये गुण विस्तृत होते चले जाते हैं।
अहंकार संकुचित करता है, विनम्रता विस्तृत करती है। फैलना, विस्तृत होना व्यक्ति की नियति है। उसका स्वभाव है। पर उसका अहं उसके लिए बाधा बन जाता है। उसे बून्द से सागर नहीं होने देता। जन से जिन नहीं होने देता।
| प्रवचन-पीयूष-कण
४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org