Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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प्रवचन - पीयूष-कण
जिनवाणी
अपरिग्रह जिनवाणी को आप यदि श्रद्धा से, विश्वास से, पूरे महापुरुषों ने कहा – “मूच्छा परिग्गहो वुत्तो।" मूर्छा ध्यान से सुनेंगे तो बड़ा आनन्द आएगा। क्योंकि वह ही परिग्रह है। धन, दौलत, महल, पली तथा अन्य सच्चे आनन्द से आपको परिचित कराती है। उसे सुनकर, साजो-सामान परिग्रह नहीं हैं। परिग्रह बाहर की वस्तु नहीं हृदयंगम करके आपका मन रोग मुक्त बनता है। आपकी है। भीतर के एक भाव का नाम परिग्रह है। आप अरबों आत्मा कर्म मुक्त बनती है।
पति होकर भी अपरिग्रही हो सकते हो। दरिद्र, फटेहाल पर आपका मन संदेहशील बना रहता है। संदेह के ।
होकर भी परिग्रही हो सकते हो। कारण ही आप सुनकर भी सुन नहीं पाते हैं। कुछ सुन भी वस्तु परिग्रह नहीं है। वह तो साधन है। जीवन लेते हैं तो ग्रहण नहीं करते हैं। यही कारण है कि आप यापन के लिए साधनों का उपयोग तो करना ही पड़ेगा। जिनवाणी सुनकर भी आनन्द से रिक्त रह जाते हैं। पर उन साधनों पर मूर्छा भाव न हो। उन्हें पकड़ कर
मत बैठ जाओ। ___ कई बार शरीर रुग्ण हो जाता है। ऐसी अवस्था में हम डॉक्टर के पास जाते हैं। वह हमें दवाई देता है। उस ___ महाराज भरत एक बड़े सम्राट् थे। षड्खण्डाधीश दवाई को हम पूरे विश्वास के साथ खा लेते हैं। हमारी
थे। उनके पास अपार वैभव था। हजारों रानियों के वे श्रद्धा डॉक्टर पर होती है, दवाई पर होती है। उसे हम
स्वामी थे। पर उस अपार वैभव पर, रानियों पर उनका सही समय पर सही मात्रा में ग्रहण कर लेते हैं। डाक्टर के
ममत्व भाव न था। वे उनसे बन्धे हुए न थे। इसीलिए परामर्शानुसार हम परहेज भी निभा लेते हैं। फिर शीघ्र ही
एक बड़े साम्राज्य के स्वामी होते हुए भी वे अत्यन्त हल्के रोग मुक्त हो जाते हैं।
रहे । पाप के भार से उनकी आत्मा भारी नहीं बनी।
___ अपरिग्रही बनिए। हृदय से, मन से वस्तु के ममत्व परन्तु जिनवाणी के साथ हमारा व्यवहार विपरीत होता है। संदेह का दंश बार-बार हमें दंशित करता रहता
भाव से मुक्त बनिए । यही अपरिग्रह है। ... है। हम पूर्ण श्रद्धा भाव से उस अमृत का पान नहीं करते
आलोचना हैं। इसीलिए रिक्त रह जाते हैं। हमारे मन के रोग नहीं
हमारे जीवन में प्रमाद से, कषाय से, भावनाओं के मिट पाते हैं।
तीव्र आवेग से यदि कोई दोष लग गया तो उसके __ जैसे डॉक्टर के प्रति आप आस्थाशील रहते हैं वैसे प्रक्षालन का उपाय है - आलोचना। आलोचना आत्मशुद्धि ही जिनवाणी के प्रति भी आस्थाशील बनिए। उसे सुनिए। का श्रेष्ठ उपाय है। आलोचना को लौकिक पक्ष से मत पढ़िए। हृदयंगम कीजिए। सुनते-पढ़ते समय अपने मन- पकड़ना। लौकिक पक्ष से पकड़ोगे तो भटक जाओगे | वचन-काय को स्थिर रखिए। ये तीनों योग जब जिनवाणी दूसरों की आलोचना, निन्दा में उलझ जाओगे। आलोचना श्रवण-अनुचिन्तन पर पूर्णतः केन्द्रित हो जाएंगे तो एक । जैन आगमों का पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ होता विस्फोट होगा। हमारे राग द्वेष रूपी आत्म रोग छिन्न
है-अपने दोषों को स्वीकार कर लेना/देखना और प्रकट भिन्न हो जाएंगे। हजारों वर्षों के कर्म क्षण भर में टूट
करना। जाएंगे। ...
अपने दोष स्वीकार करना सहज बात नहीं है।
प्रवचन-पीयूष-कण
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