Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
का विधान है । अतः व्यावहारिक, भौतिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा असंभव है। जो साधक इस सत्य को समझ लेते हैं। पूर्ण रूप से आत्मसात् कर लेते हैं, तथा स्वयं के अस्तित्व के लिए प्राणि हिंसा नहीं चाहते, वे जितना शीघ्र ही, संसार बन्धन से मुक्त होना चाहते हैं; जिससे पुनः जन्म न लेना पड़े और न ही दूसरे प्राणियों की हिंसा करनी पड़े। वे भोग के स्थान पर योग का आश्रय लेते हैं / जो क्रमशः अल्प से अल्पतर हिंसा का मार्ग है। अहिंसा के सन्दर्भ में योग का अर्थ है - न्यूनतम हिंसा का जीवन ।
स्वयं की आत्मा के समान ही समस्त प्राणियों की आत्मा है, इस सत्य का साक्षात्कार करना ही जीवन का उद्देश्य है, और जो योगी समस्त प्राणियों के सुख-दुःख अपने सुख-दुःख के रूप में अनुभव करता है, वह गीता अनुसार सर्वोत्तम योगी है ।
सर्व भूतस्थमात्मान सर्वभूतानि चात्मानि । ईक्षते योग युक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः । । आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुनः । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः । ।
एक संन्यासी के जीवन का चरम आदर्श इसी सत्य की उपलब्धि करना है । वह समस्त प्राणियों को अभय प्रदान करता है, क्योंकि सभी प्राणी उसी के अंग हैं। “ अभयं सर्वभूतेषु मनः सर्व प्रवर्तते ।” यही कारण है कि किसी प्राणी की हिंसा करना साध्य के विरुद्ध होने से त्याज्य है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार अन्याय का प्रतिकार न करना" Resist not Evil संन्यास का आदर्श है, क्योंकि अन्याय करने वाला भी उसी का एक रूप है ।
अहिंसा के इस उच्चतम रूप को कुछ दृष्टान्तों के द्वारा समझा जा सकता है। एक कृशकाय तपस्वी सूफी सन्त मांस की एक दुकान के सामने से गुजरते हुए क्षण भर के लिए वहीं खड़े हो गए। उन्हें देखकर मुसलमान दुकानदार
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ने सलाम किया और कहा कि क्या वे मांस लेंगे। सन्त ने कहा कि उन्हें मांस की आवश्यकता नहीं है। दुकानदार ने प्रतिवाद करते हुए कहा, “जनाब, आपके शरीर में मांस बिल्कुल नहीं है, आपको तो मांस की जरूरत है, क्योंकि मांस से ही मांस बनता है। सूफी सन्त ने क्षण भर रुक कर उत्तर दिया, “मेरी देह में जितना माँस है, उतना कब्र के कीड़ों के लिए काफी है" और वे आगे बढ़ गये । उन सन्त के लिए स्वयं की देह कब्र के कीड़ों की देह से अधिक मूल्यवान् नहीं रह गयी थी ।
श्रीरामकृष्ण ने भी “ सर्वात्मैकत्व" के अनुभव के फलस्वरूप स्वयं की रुग्ण देह को स्वस्थ करना अस्वीकार कर दिया था। घटना उस समय की है जब वे गले के कैंसर से पीड़ित थे तथा उसके कारण कुछ भी खा-पी नहीं सकते थे । गले में तीव्र पीड़ा होती थी तथा शरीर धीरेधीरे दुर्बल होता चला जा रहा था। वे गले के रोग ग्रस्त अंश पर मन को एकाग्र करके उसे ठीक करने की संभावना को उन्होंने यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि जो देह माँ जगदम्बा को अर्पित की जा चुकी है, उस पर वे मन को एकाग्र नहीं कर सकते। लेकिन भक्तों के अत्यधिक आग्रह को वे अस्वीकार नहीं कर सके और उनके आग्रह पर उन्होंने मां जगदम्बा से प्रार्थना की कि गले को थोड़ा ठीक कर दें जिससे कि वे कुछ खा सकें। मां जगदम्बा ने जो उत्तर दिया वह वस्तुतः श्री रामकृष्ण की उच्चतम अद्वैत ज्ञान में प्रतिष्ठा का द्योतक है। माँ जगदम्बा ने सभी भक्तों को दिखाकर कहा कि तू इतने मुखों से तो खा रहा है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुष सर्वत्र अपनी ही आत्मा का दर्शन करने के फलस्वरूप स्वयं की देह की विशेष सेवा सुश्रूषा की इच्छा नहीं करते। वे केवल लोक कल्याण के लिए अल्पतम हिंसा को स्वीकार कर देह धारण करते हैं ।
उपर्युक्त विश्लेषण से दो बातें स्पष्ट हो गई होंगी ।
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अहिंसा परमो धर्मः
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