Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
आत्मशुद्धि, मनःशुद्धि के लिये होनी चाहिये। मर्यादा मर्यादा रहती है, लक्ष्मण रेखा की तरह रक्षात्मक ___ स्वच्छन्दता से, अहंकार से लोकलाज से, कुल धर्म
बन जाती है। इनके पीछे भाव जुड़ा रहता है मन का के रक्षण के लिये तपश्चर्या न करें, आत्मार्थ के लिये
कि- “ये जो सीमा रेखाएं हैं, मुझेमिरी आत्मा को मेरी करें।
जीवन साधना के क्षेत्र में बनाये रखने के लिये है। नहीं तो कभी भी मैं उच्छृखल/उदण्ड बन सकता हूँ, कभी भी
लड़खड़ाकर बाहर गिर सकता हूँ। उसको थामने के लिये राजनेता
ये सीमा रेखाएं हैं। आपने कभी ध्यान दिया होगा कि सत्ताधीश लोग
___मन पता नहीं कितने प्रकार की आशाएँ/इच्छाएँ जब गद्दी पर बैठे होते हैं तब उनकी दशा और किन्तु जब ___संजोये बैठा है और उसकी पूर्ति के लिये बराबर प्रयत्न वे गद्दी से उतर जाते है तब उनकी दशा और हो जाती करता रहता है। जब मन में तृष्णा, वांछा, इच्छा, ऐन्द्रिक है। जिस सत्ताधीश में पराय बुद्धि रहती है, वह सदा ही विषयों की तमन्नाएँ - बासनाएँ हो, फिर वहाँ सद्विचार यश का पात्र होता है, आत्मसन्तुष्ट होता है। जो स्वार्थी कैसे आयेगा? जहाँ कुत्सित विचारों का बोलबाला हो होता है वह किसी के भी प्रति उदारता, सहयोग नहीं वहाँ सुविचारणा कैसे आयेगी? करता, जनता में अपयश का भागीदार बन कर पतित हो जाता है।
कर्म साधक
कर्म क्या है ? मन, वाणी और शरीर द्वारा शुभसाधक/साधु हमेशा जप, तप, संयम में लीन रहता अशुभ स्पन्दना का होना तथा क्रोधादि संक्लेश भावों से है, वह न किसी को वरदान देता है न अभिशाप देता है, कार्य करना । वस्तुतः आत्मप्रदेशों पर कर्माणुओं का संग्रह फलतः वह निपट अध्यात्मवादी होता है। वह अनुकूल होना कर्म है। उसका कालान्तर में जागृत होना कर्मफल प्रतिकूल परिस्थितियों में मध्यस्थ/तटस्थ भाव से रहता
का भोग है। किया हुआ कर्म व्यर्थ नहीं जाता, वह है। अध्यात्म-साधना के लिए राग भाव और द्वेष भाव
फलवान् होता ही है। आदमी के चाहने न चाहने, मानने दोनों “अभिशाप” हैं। अतः साधु की साधना में यह ।
न मानने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। स्खलना ही है। इसलिये साधु “वरदान” और “अभिशाप" दोनों से परे रहता है।
हठधर्मिता मर्यादाएँ
अपने-अपने पक्ष को सत्य सिद्ध करने का आग्रह मर्यादाएं बंधन कब बनती है? जब मन न माने। होने के कारण वैमनस्य उत्पन्न हो गया फलतः एक-दूसरे जब मन ठीक हो तो ये बन्धन नहीं कहलाती। फिर को घृणा एवं द्वेष की दृष्टि से देखने लगे। सत्य की
सुमन वचनामृत |
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