Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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रचना का परिचय
इस रचना के दो रूप प्राप्त होते हैं - एक पद्य गद्य रूप एवं दूसरा केवल पद्य रूप। पहले को “वृहदालोयणा" और दूसरे को "ज्ञान-गुटका" कहते हैं । पद्य विभाग में मंगलाचरण, आत्म-कल्याण भावना, कर्म का स्वरूप, संसार स्वभाव, आत्म- उद्बोधन, पुण्य-पाप, शील आदि विभिन्न विषयों के माध्यम से आत्म- आलोचना की गई है । गद्य विभाग में अठारह प्रकार के पाप की विस्तार पूर्वक तथा शेष अतिचार आदि दोषों की संक्षेप में आलोचना है । पद्य विभाग में सुन्दर दोहे, सवैये, गाथा तथा हरिगीतिका के छंद है जो सुमधुर एवं लालित्यपूर्ण हैं |
इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण सन् १६६४ में अम्बाला शहर में प्रकाशित हुआ था। भक्तों की निरंतर मांग पर इसका द्वितीय संस्करण चेन्नई में सन् १६६७ में प्रकाशित हुआ ।
वृहदालोयणा ( ज्ञान गुटका )
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“देवाधिदेव रचना” मूल ग्रंथ का निर्माण आज से १६० वर्ष पूर्व पंजाब के श्रेष्ठ हिन्दी लोककवि श्रीहरजसराय ने किया था। पंजाब के स्थानीय जैन समाज में इस पुस्तक को बहुत लोकप्रियता मिली थी तथा अनेक व्यक्ति प्रातः काल इसका पाठ करते थे। जो प्रसिद्धि गीता, धम्मपद और सुखमणि साहब को प्राप्त थी वैसी ही इसे भी प्राप्त थी । तीर्थंकरों के चरित्र एवं गुणों को दर्शाने वाली यह एक अनुपम कृति थी । इस प्राचीन कृति का सुन्दर अनुवाद व व्याख्या करके श्रीसुमनमुनिजी महाराज ने पुरातन लोकप्रिय साहित्य को प्रकाश में लाने का अभिनंदनीय एवं स्तुत्य कार्य किया है ।
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सुमन साहित्य : एक अवलोकन
पूज्य श्रीसुमनमुनिजी महाराज ने इस श्रेष्ठ कृति का बहुत ही सुन्दर अनुवाद तथा विवेचन किया है। प्रत्येक पाठ का विश्लेषण, आगम के साथ उसकी संगति, संदर्भ आदि दिए हैं । भाषा सहज, सरल एवं प्रभावशाली है । इस ग्रंथ का परिशिष्ट बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इसमें लेखक ने संबंधित तात्त्विक विषयों का यथा- तीस महामोहनीय स्थान, आठ कर्मों के बंध के कारण, पौषध के १८ दोष, २५ मिथ्यात्व, पाप की ८२ प्रकृतियाँ, ध्यान के १६ दोष, सामायिक के ३२ दोष, वंदना के ३२ दोष, शील की ६ बाड़, आठ प्रवचनमाता, पच्चीस क्रिया व छह लेश्या का विशद वृतांत दिया है अतः यह ग्रंथ साधकों, स्वाध्यायियों के लिए अत्यधिक प्रेरक एवं लाभप्रद बन गया है ।
देवाधिदेव रचना
मूल प्रति की खोज
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श्रीसुमनमुनिजी महाराज ने इस ग्रंथ की मूल प्रतियों को खोजना प्रारंभ किया। उन्हें तीन हस्तलिखित घ तीन मुद्रित प्रतियाँ प्राप्त हुईं। इन प्रतियों के आधार पर लेखक ने इस ग्रंथ का सरल भाषा में भावानुवाद दिया है। साथ
प्रत्येक पद की विस्तृत व्याख्या भी दी है एवं जैन धर्म के गंभीर सिद्धांतों को सरल भाषा में अभिव्यक्त किया है । इसके साथ ही उत्थानिका, टिप्पणी, संगति आदि द्वारा विषय को इतना स्पष्ट किया है कि वह सरलता से समझ में आ जाये ।
मूल ग्रंथ के रचयिता -
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लाला हरजसराय जैन सुश्रावक थे तथा कुशपुर ( लाहौर के निकट) के रहने वाले थे । इनको जैन तत्त्वज्ञान का अद्भुत ज्ञान था तथा इन्होंने तीन सुप्रसिद्ध काव्य ग्रंथों की रचना की, जिनके नाम साधु-गुणमाला,
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