Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
१) आपकी दैनिक क्रिया के अंग थे - दस प्रत्याख्यान,
ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रस-परित्याग आदि । २) आपने अनेक उपवास व लम्बी तपस्याएं की। प्रत्येक
चातुर्मास में आप अठाई तप करते थे। इस प्रकार
आपने चालीस अठाई के तप किये। ३) अनेक उपधान-आयंबिल के तप किये। ४) आप प्रतिदिन स्वाध्याय, वैय्यावृत्य-सेवा व शास्त्रादि
लेखन कार्य करते थे। ५) आप प्रतिदिन 'नमोऽत्थुणं' पाठ का ध्यान करते
थे।
संस्मरण तथा साध्वी परंपरा का इतिवृत्त था। संसार से विरक्ति ___ इस ग्रन्थ के चरित्र नायक जौहरी अमरसिंह का १६ वर्ष की अल्पायु में ही विवाह हो गया था। उनके तीन पुत्र व दो पुत्रियां थी। दो पुत्रों की मृत्यु अल्पायु में ही हो गई थी तथा तीसरा पुत्र भी आठ वर्ष की उम्र में चल बसा था। इस घटना ने उनके हृदय में संसार से विरक्ति उत्पन्न कर दी और उन्होंने वि.सं. १८६८ में पंडितवर्य श्री रामलालजी महाराज से दीक्षा ग्रहण कर ली। आपने आगमों का गहन अध्ययन किया और उसमें निष्णात बन गये। आप में ज्ञान प्राप्ति की अदम्य लालसा थी। वि. संवत् १६०३ में आपने लाला सौदागरमलजी, जो जैनागमों के वेत्ता सुश्रावक थे, से तीस आगमों का शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया। आप कुशाग्र बुद्धि के थे अतः बहुत कम । समय में आगम-शास्त्र के गम्भीर ज्ञाता बन गए। समर्थ तार्किक
आपकी तर्क शक्ति बड़ी प्रबल थी। उन समय की परंपरा के अनुसार आपकी अनेक श्रावकों तथा साधुओं के साथ तत्त्व-चर्चा हुई और आपने सभी की शंकाओं का समाधान किया। पूज्य श्री सुमन मुनिजी ने इन सब चर्चाओं का अत्यंत ही मार्मिक एवं सटीक वर्णन इस ग्रन्थ में किया है। आपने वि.सं. १८१३ में आचार्य पद ग्रहण किया। उस समय आपके संत-साध्वी परिवार की संख्या ३६ थी। इस प्रकार आप पंजाब स्थानवासी समुदाय के । आचार्य बने।
आपके श्रीसंघ में एक मुनि को कुष्ठ रोग फूट निकला। उनका सारा शरीर दुर्गन्धपूर्ण व घृणास्पद हो गया था। कोई भी उनकी सेवा करने उनके निकट नहीं जाना चाहता था। आचार्यश्री को ज्ञात होते ही वे स्वयं ही वहाँ चले गए तथा उन्होंने मुनिजी की बहुत सेवा की। सब ने बहुत मना किया पर आप नहीं माने। आप उन्हें अपने हाथों से आहारादि खिलाते तथा उनके वस्त्र प्रक्षालन
आदि करते थे। समुचित चिकित्सा व आपकी सेवा के फलस्वरूप छः महीने में ही मुनिजी की काया कंचनवर्णी हो गई, वे रोगमुक्त हो गए। आगमवेत्ता तथा ध्यान-योगी
आपने सैकड़ों साधुओं एवं साध्वियों को आगम का ज्ञान प्रदान किया। आपकी अध्ययन शैली बड़ी ही संक्षिप्त, सुस्पष्ट तथा सरल थी जिससे जिज्ञासु को तत्त्वों का ज्ञान सहजता से हो जाता था। अध्यापन का विषय कितना ही कठिन क्यों न हो आप उसे सरलता से समझा देते थे। श्रोता के मन में तर्क/शंका आदि उत्पन्न कर विषय का परिपूर्ण विश्लेषण करना आपकी विशेषता थी। आप मूल पाठ के साथ टब्वा, चूर्णि, अवचूरि आदि तथा
महान् तपस्वी एवं सेवाव्रती
आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज का जीवन तपः साधना से परिपूर्ण था। आपकी तपस्या वृत्ति का संक्षिप्त वर्णन जो कि लेखक ने दिया है, बड़ा ही प्रेरणास्पद है:-
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पंजाब श्रमणसंघ गौरव आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज |
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