Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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श्रमण परंपरा का इतिहास
साधु तीर्थ की पुनर्स्थापना का संकल्प कर लिया। उस बत्तीसों आगमों को कण्ठस्थ कर लिया था। उस युग के समय आर्या ज्ञानांजी सुनाम नगर में विराजित थीं। सुनाम साधु शास्त्र और पुट्ठों को कन्धों पर उठा कर चलते थे के ही पास के किसी गांव का एक भाई जिसका नाम और जिस साधु के पास जितने अधिक शास्त्रों का भार निहालचन्द था और जो जाति से राजपूत था जैन संतों, होता वह उतना ही बड़ा विद्वान माना जाता था। पर साध्वियों के प्रति विशेष श्रद्धाशील था। वह प्रतिदिन अपनी स्मरण शक्ति के बल पर पंडित श्री रामलाल जी साध्वी ज्ञानां जी के दर्शन करने आता। वार्ता से साध्वीजी म. ने उस युग की उस मान्यता को मिटा दिया था। वे ने जान लिया कि निहालचन्द का एक सर्वविध योग्य पत्र स्वल्प वस्त्रों और पात्रों के अतिरिक्त अपने पास कुछ है। उन्होंने निहालचन्द से उसके पुत्र की याचना की। नहीं रखते थे। पुत्र की स्वेच्छा को केन्द्र मानकर निहालचन्द ने साध्वी जी
एक बार आप हरियाणा प्रान्त के गांव रिण्ढाणा में की बात स्वीकार कर ली।
पधारे। दो चार दिन विराजने के बाद विहार करने लगे। निहालचन्द राजपूत का पुत्र रामलाल आर्या ज्ञानां श्रावक वृन्द आया और प्रार्थना करने लगा - गुरुदेव! जी के सम्पर्क में आया। साध्वी जी के उपदेशों से वह हमारे क्षेत्र में कुछ दिन तो विराजिए। विरक्त हो गया और उसने मुनि बनने का संकल्प कर
उत्तर में आपने अति कोमल वचन कहे - “भाइयो! लिया। प्राथमिक साध्वाचार की शिक्षा से स्नात कर साध्वी
यहाँ हमारे माल का कोई खरीददार दिखाई नहीं दिया, जी ने रामलाल को आर्हती दीक्षा प्रदान की और उन्हें
इसीलिए विहार कर दिया। व्यापारी तो वहां दुकान तपरवी श्री छजमल जी महाराज का शिष्य घोषित किया।
लगाता है जहां उसका माल बिक सके। हम भी तो इस प्रकार श्री रामलाल जी महाराज मूल में “याकिनी
भगवान के धर्म के व्यापारी हैं। कोई भाई कथा, जिनवाणी महत्तरा सुनू आचार्य-हरिभद्र" की तरह “साध्वी ज्ञाना
सुनने नहीं आया तो हमने विहार कर दिया।" सुनू” हैं। श्री रामलाल जी म. ने आगम अध्ययन आर्या जी से ही प्राप्त किया। दिन में वे साध्वी जी से वाचना
इस पर एक श्रावक ने पूछा - महाराज! आपको लेते और रात्री में उपाश्रय में रहकर उसका अनुचिन्तन
कथा करनी आती है? आपके पास शास्त्र तो एक भी और कण्ठस्थ करते। इस प्रकार थोड़े ही समय में आप
दिखाई नहीं देता। अच्छे विद्वान् मुनि बन गए। आपको ‘पंडित' उपनाम से आप ने कहा - श्रावक जी! आप कौन सा शास्त्र पुकारा जाने लगा। वस्तुतः आप थे भी पण्डित । आपके सुनना चाहते हैं? भगवती जी, ठाणांग जी या पन्नवणा? विरोधी भी आपके पाण्डित्य को स्वीकार करते थे। बुद्धि
आपकी वाणी सुनकर श्रावकवृन्द दंग रह गया। विजय जो पहले बूटेराय नाम का स्थानकवासी मुनि था ने।
फिर आप वहां कई दिन तक विराजे और श्रावकों को अपनी पुस्तक “मुखपत्ति चर्चा" में आपको पण्डित स्वीकार ।
आगमवाणी का अमृतपान कराते रहे । करते हए लिखा है - "रामलाल मलकचन्द के टोले का साधु था, अपने मत में पंडित था, बत्तीस सूत्र का अपने
आपका विहार क्षेत्र भी काफी विशाल रहा। पंजाब मत की आम्नाय करके जानकार था।"
के अतिरिक्त आपने दिल्ली, उत्तर प्रदेश, तथा राजस्थान
तक की पद यात्राएं की। वि. सं. १८६७ का वर्षावास आपकी बुद्धि अति सूक्ष्म और निर्मल थी। आपने ।
आपने जयपुर में किया। वहीं पर श्री अमरसिंह जी
पंजाब श्रमणसंघ की आचार्य परम्परा
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