Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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श्रमण परंपरा का इतिहास
पूज्य गुरुदेव चातुर्मासार्थ जालंधर शहर पधारे। वर्षावास में स्वास्थ्य डांवाडोल रहा। देह अबल हो चुकी थी। थोड़ी ही दूर चलने पर सांस फूलने लगता था। इस पर भी आप वर्षावास की समाप्ति पर विहार करने को तत्पर थे।
आचार्य देव से अन्तिम मिलन
जम्मू का वर्षावास पूर्ण करके आचार्य भगवन् पंजाब पधार रहे थे। आप श्री ने प्रसिद्ध वक्ता श्री सुमनकुमार जी महाराज ठाणा दो को आचार्य श्री पास भेजा। पूज्य मुनिवृन्द अमृतसर पहुंचे। आचार्य देव भी अमृतसर पधारे। मुनि द्वय ने आचार्य देव से निवेदन किया कि - "पूज्य पाद प्रवर्तक श्री जी म. हृदय रोग से आक्रान्त हैं, अतः आप जालन्धर पधारकर उन्हें दर्शन लाभ प्रदान करें।"
कृपालुता के सागर आचार्य श्री तो स्वयं अपने आदरास्पद प्रवर्तक श्री से सुखशान्ति पृच्छा के निमित्त मिलना चाहते ही थे। अतः आचार्य देव ससंघ जालंधर पधारे। दो महापुरुषों का भावभीना सम्मिलन हुआ। ऐतिहासिक संगम था वह । तीन-चार दिन तक स्नेह मिलन के पश्चात् प्रवर्तक श्री जी ने आचार्य भगवन् को विदाई दी और वह भी अन्तिम । फरवरी मास के प्रथम दिन मध्याह्न डेढ़ बजे। आचार्य भगवन विहार कर गए।
शिष्यों ने अनुनय की - भगवन् ! आपको पीड़ा है, न पधारें। परन्तु प्रवर्तक श्री जी यही कहते रहे - मैं अब ठीक हूँ। मैंने सतियों जी को वचन दे रखा है।... अभी पचास कदम ही गए होंगे कि रक्तचाप और हृदय गति का दौरा पड़ गया। पर आप रुके नहीं। शनैः शनैः चलते हुए विद्यालय में पधार ही गए।
विद्यालय भवन के विज्ञान कक्ष में प्रवर्तक श्री जी को विश्राम करवाया। डा. श्री आनन्द आए। निदान किया। इसी विज्ञान भवन में ही कुमारी राणी को जैन प्रव्रज्या का पाठ पढ़ाया।
रात्री विश्राम पूज्य श्री ने वहीं किया। डा. आनन्द ने रात्री में गुरुदेव के सन्निध्य में बैठकर आत्मा विषयक अनेक प्रश्न पूछे । प्रवर्तक श्री जी के सटीक समाधानों से वे अत्यन्त प्रभावित हुए। प्रथम मुनि दर्शन में ही वे जैन धर्म के प्रति दृढ़ आस्थाशील बन गए। अब मैं बहुत न जी सकूँगा
दस फरवरी को प्रभात काल में आप श्री पुनः जैन स्थानक में पदार्पण हेतु डगमगाते कदमों से प्रस्थित हुए। पर शरीर ने साथ नहीं दिया। कुर्सी पर बैठाकर संत आपको उपाश्रय लाए। रात्री में ग्यारह बजे आप पुनः अस्वस्थ हो गए। डा. आनन्द ने मात्र निरीक्षण किया। शनैः शनैः पीड़ा कम हो गई।
१५ फरवरी को आप पुनः भयंकर व्याधिग्रस्त हुए। देह पीड़ा उगलने लगी। उस क्षण आपने अपने मुनिवृन्द से स्पष्ट कह दिया - अब मैं दूर तक तुम्हारा सहयात्री न रह पाऊंगा। प्रतीत होता है कि प्रस्थान का पल, पल-पल सन्निकट आ रहा है।
१६ फरवरी को कुछ स्वास्थ्य लाभ हुआ। लगभग १०-११ दिन सामान्य रहे। २७ फरवरी को पुनः दारुण 707
प्राण जाएं पर....
नौ फरवरी १६६८ को जालन्धर में ही विराजित महासती श्री प्रवेश कुमारी जी म. के सान्निध्य में वैराग्यवती की दीक्षा सम्पन्न होने जा रही थी। प्रवर्तक श्री जी ने दीक्षा महोत्सव में पधारने की स्वीकृति दे दी थी। दीक्षास्थल था - जैन स्कूल । उसी रात ४-३० बजे हल्का दिल का दौरा पड़ा। जो एक घण्टे के पश्चात् ठीक हुआ। प्रातः ग्यारह बजे चल पड़े संतों को संग लेकर विजयनगर।
| प्रवर्तक पं.र. श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज
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