Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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श्रमण परंपरा का इतिहास
सम्बडियाल जिला पसरूर (वर्तमान पाकिस्तान) में श्रीमान मथुरा दास जी ओसवाल की धर्मप्राण पली श्रीमती लक्ष्मी देवी की रत्नकुक्षी से हुआ। बाल्यकाल से ही आप परम विचक्षण और प्रतिभाशाली थे। आपकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण थी। शिक्षा पूर्ण होने पर आप पसरूर आ गए और वहां जवाहरात का व्यवसाय करने लगे।
जैन धर्म के संस्कार आपके सांस - सांस में रचे-पचे थे। आपने पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से व्यवसाय प्रारंभ किया। कुछ ही समय में आपका व्यवसाय चमक उठा। उन्हीं दिनों में आपके माता-पिता ने एक प्रतिष्ठित परिवार की सुशील कन्या से आपका लग्न तय कर दिया। पर आपका मानस विवाह बन्धन में बन्धने को राजी न था। सांसारिक कार्य करते हुए भी आपका रस उनमें नहीं था। आप अपना अधिकांश समय साधु-साध्वियों के दर्शन, प्रवचन श्रवण और सामायिक आदि की आराधना में ही व्यतीत करते थे। महासती श्री पार्वती जी महाराज की आप पर विशेष कृपा थी। उनकी प्रेरणा से आपका वैराग्य प्रबल से प्रबलतर बनता चला गया। परन्तु आपके परिवार जन आपको स्वयं से विलग नहीं करना चाहते थे।
उन्नीस वर्ष की अवस्था में आपने आचार्य देव श्री अमरसिंह जी म. की सभा में खड़े होकर श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किए। प्रत्येक मास में आप चार पौषध व्रत करते थे। पौषध मुनिजीवन की तैयारी की पूर्व भूमिका है। साधक के जीवन में पौषधोपवास का स्थैर्य ही तो मुनित्व है। आप उसी तैयारी में संलग्न थे। वैराग्य को प्रवल बनाने वाली एक घटना
वि.सं. १६२६ की घटना है। आप अपने चार घनिष्ठ मित्रों - शिवदयाल, गणपतराय, दुल्होराय तथा गोविन्दराय के साथ व्यावसायिक कार्यवश पसरूर के
निकटस्थ गांव में गए। पसरूर और उस गांव के मध्य एक बरसाती नदी पड़ती थी। जाते हुए नदी में जल अधिक नहीं था। पर संध्या समय जब आप गांव से शहर के लिए चले तो नदी का जलस्तर बढ़ चुका था। नदी का जल किनारों से ऊपर फैलकर बह रहा था। आपके पास काफी स्वर्ण था। पसरूर पहुंचना आवश्यक था। उसके लिए नदी पार करना आवश्यक था। परन्तु आप पांचों मित्रों में से कोई भी तैरना नहीं जानता था। इस पर भी हिम्मत करके आप चारों ने नदी में प्रवेश किया। मध्य धार तक पहुंचते - पहुंचते आप पांचों की ग्रीवा तक पानी आ गया। जलावेग तीव्र से तीव्रतर होता चला जा रहा था। आप सभी साथियों के कदम उखड़ने लगे। मृत्यु की संभावना साक्षात् हो उठी। प्राण गए कि गए। आचार्य श्री अमरसिंह जी म. से सुनी हुई महावीर की वाणी - 'असंखयं जीविय मा पमायए' आपके कानों में गूंजने लगी। उस क्षण आप पांचों मित्रों ने संकल्प किया - “आज यदि हमारे प्राण बच जाएं तो हम संसार त्याग कर मुनि बन जाएंगे।"
चमत्कार घटित हुआ। सहसा जल का आवेग शान्त होने लगा। आप पांचों मित्र तट पर पहुंच गए। तट पर पहुंचकर आपने अपने मित्रों से कहा - मित्रो! अपने हृदय के संकल्प को खण्डित मत होने देना। अब हम पांचों को परिवार की आज्ञा लेकर शेष जीवन त्याग मार्ग पर अर्पित करना है। मित्रों ने आपकी बात का एक स्वर से समर्थन किया।
घर पहुंचकर आपने अपने हृत्संकल्प से परिवार को परिचित करा दिया। परिवार जनों ने आपकी बात का घोर विरोध किया। चूंकि आप का लग्न हो चुका था, इसलिए आपको दोहरे विरोध का सामना करना पड़ा। परन्तु श्रेष्ठ पुरुष जब संकल्प कर लेते हैं तो उससे पीछे नहीं हटते। लगभग पांच वर्ष के अनवरत संघर्ष के
| पंजाब श्रमणसंघ की आचार्य परम्परा
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