Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
६८. श्री रूप सिंहजी स्वामी २०८६ से २१०६ ६६. श्री दामोदरजी स्वामी २१०६ से २१२६ ७०. श्री धनराजजी स्वामी २१२६ से २१४८ ७१. श्री चिन्तामण जी स्वामी २१४८ से २१६३ ७२. श्री खेमकरण जी स्वामी २१६३ से २१६८ ७३. श्री धर्मसिंह जी स्वामी ७४. श्री नगराज जी स्वामी ७५. श्री जयराज जी स्वामी ७६. श्री लवजी ऋषि स्वामी ७७. श्री सोमजी ऋषि स्वामी
सामग्री विस्तारभय से स्थानकवासी परम्परा/श्रमण या जिन मति परम्परा का आर्य सुधर्मा से लेकर स्थानकवासी क्रांतिकारी आचार्यों तक का संक्षिप्त इतिहास क्रम ही पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर सका हूँ। यथासमय शोधपूर्ण अन्य सामग्री प्रस्तुत करने का भी विनम्र प्रयास रहेगा।
समस्त सम्प्रदायों के आचार्य वरों- मुनिराजों एवं विद्वद् जनों से यही विनम्र निवेदन है कि वे अपनी-अपनी
आचार्य परम्परा एवं विशिष्ठ मनिवरों के योगदान विषयक सामग्री मुझे प्रेषित करें ताकि भविष्य में और अधिक शोध-खोज पूर्ण सामग्री सुधि पाठकों के कर कमलों में प्रस्तुत कर सकू।
१ - गहन शोध के पश्चात् आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के उत्तराधिकारी आचार्य वीरभद्र का समय वास्तव में वीर निर्वाण संवत् १००६ से ही प्रारम्भ होना चाहिये। क्योंकि आचार्य देवर्द्धि का स्वर्गारोहण वीर निर्वाण संवत् १००६ में हुआ था। भगवान महावीर के निर्वाण के अनन्तर १००० वर्ष तक पूर्व का ज्ञान रहेगा, इस शास्त्रीय वचन को ध्यान में रखते हुए उनका स्वर्गवास वीर निर्वाण संवत् १००० मान लिया गया है। इस ओर पट्टावलीकारों ने ध्यान नहीं दिया कि - "संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोग नाहेण" तथा - "उसभेणं अरहयाकोसलिएणं इमीसे ओसप्पिणीए णवहिं सागरोवम कोडाकोड़ीहिं विइक्कतेहिं तित्थे पवत्तिए।" इन आगम वचनों में सूत्र लक्षणानुसारिणी संक्षेपशैली में जिस प्रकार क्रमशः एक मास दश दिन का और एक हजार तीन वर्ष आठ मास तथा पन्द्रह दिन कम एक लाख पूर्व जैसे सुदीर्घ समय को छोड़कर "संवच्छरेण" तथा "णवहिं सागरोवमकोडाकोडीहिं" इन शब्दों से केवल बड़ी संख्या ही बताई गई है, ठीक उसी प्रकार भगवती सूत्र में पूर्व ज्ञान का सद्भाव ६ वर्ष की लघु अवधि को छोड़कर वीर निर्वाण एक हजार वर्ष तक का ही बताया गया है। यदि सूत्र लक्षणानुसारिणी इस संक्षेप शैली को काल गणना के समय ध्यान में नहीं रखा जाय तो भ. ऋषभदेव द्वारा तीर्थ स्थापना का समय चतुर्थ आरक के प्रारम्भ हो जाने पर मानना पड़ेगा। वस्तुतः महाराज आदिनाथ ऋषभदेव ने जिस समय तृतीय आरक के समाप्त होने में १००३ वर्ष मास और १५ दिन का समय अवशिष्ट रह गया था, उस समय धर्मतीर्थ की स्थापना की।
इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाय तो अंतिम पूर्वधर आर्य देवर्द्धिगणि का स्वर्गारोहण काल और भगवान महावीर स्वामी के २६वें पट्टधर आचार्य वीरभद्र का आचार्य पदारोहण काल वीर निर्वाण संवत् १००६ ही युक्तिसंगत सिद्ध होता है। सुज्ञेषु किं बहुना।
१. वि.सं. १४०१ में हुए। २. पाटन के कुनवी वि.सं. १४२७ में। ३. मानस के बाफणा रईस १४७२ सं. में हुए। ४. सेरड़ा के, सुराणा जाति वि.सं. १५०१ में हुए। ५. भानुलूणा, भीमाजी, जगमालजी तथा हरसेन से ये चार और
इकतालीस पुरुष श्री लोकाशाह के उपदेश से साधु हुए थे, वि.सं. १५३१ में जब भस्मक ग्रह उतरा और दया धर्म का उदय हुआ।
६. जयराज जी, रिष गिरिधर जी प्रमुख और बजरंग जी जाति का
चेला लवजी उन दिनों यतियों की क्रियाहीनी देख के यतियों
को छोड़कर शास्त्र क्रिया करके जैराज जी के पाट पर बैठे। ७. वि.सं. १७०६ में जिस वक्त यतियों ने "दंदिया" नाम
अपमान करने के लिए रखा था।
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श्री श्वे. स्थानकवासी श्रमण परंपरा
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