Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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श्रमण परंपरा का इतिहास
उन्मीलित हो उठे। उन्होंने गणिपिटक अर्थात् द्वादशांगी और न इस प्रकार का आरम्भ-समारम्भ करने वाले का के प्रथम अंग आचारांग सूत्र का गहन अध्ययन-अवगाहन- अनुमोदन ही करे। और यहां तक कि मुक्ति की प्राप्ति के चिन्तन-मनन एवं निदिध्यासन किया। दश-वैकालिक सूत्र लिये आठों कर्मों को मूलतः विनष्ट करने के लिये भी के “छज्जीवणिया" नामक अध्ययन के एक-एक अक्षर पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और एवं उनके भावों के साथ साथ
वनस्पतिकाय के जीवों को कष्ट पहुंचाने वाला-मारने वाला "इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभेज्जा, आरम्भ-समारम्भ न करे। इस प्रकार का आरम्भ करने नेवन्नेहिं दंडं समारंभावेज्जा, दंडं समारंभंते वि अन्ने न वाला, करवाने वाला एवं इस प्रकार के आरम्भ समारम्भ समणुजाणेजा जावज्जीवाए, तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए का अनुमोदन करने वाला व्यक्ति अनन्तानन्त काल तक कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अण्णं न समणजाणामि। षड्जीव-निकाय में पुर्नपुनः जन्म-मरण ग्रहण करता हुआ तस्स भंते पडिक्मामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।"" । दारुण दुःखों की विकराल चक्की में अहर्निश-प्रतिपल अनवरत
रूपेण पिसता ही रहता है। वस्तुतः षड्जीव-निकाय के इस पाठ को भी हृदयंगम किया। आचारांग सूत्र का
जीवों को कष्ट पहुंचाने वाला, परिताप पहुंचाने वाला, मार आद्योपान्त पुनपुनः अध्ययन अवगाहन और उसमें प्रतिपादित
डालने वाला प्रत्येक आरम्भ-समारंभ प्रत्येक प्राणी के लिये विश्व कल्याणकारी विश्वधर्म जैन धर्म की आधारशिला/
घोर अहितकर एवं अनिष्टकारक है"। नींव/आधारभित्ती स्वरूप सर्वज्ञ वचनों को मन-मस्तिष्क एवं हृदय में अंकित करने के उपरान्त पत्रों पर अंकित
लोकाशाह को हृदयद्रावी आश्चर्य हुआ कि श्रमण किया। “सत्थ परिण्णा" अध्ययन के -
भगवान् महावीर ने “अनन्त चौवीसी" के सभी जिनेश्वरों
ने पृथ्वी, अप, तेजस् आदि षड्जीव-निकाय के आरम्भतत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया। इमस्स चेव
समारम्भ को प्रत्येक आत्मा के लिये अनिष्ट कारक जीवियस्स परिवंदण-माणण पूयणाए, जाइमरण मोयणाए,
अबोधिजनक, अहितकर बताया तो फिर जिन-मंदिरों के दुवखपडिग्घाय हेळं, से सयमेव पुढविसत्यं समारंभइ, अण्णेहिं
निर्माण, जिन प्रतिमाओं को स्नान-विलेपन-दीप-नैवेद्य-निवेदनपुढविसत्थं समारम्भावेइ, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते
माल्यार्पण आदि आरम्भ-समारम्भ का विधान किसने किया? समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहिए।"२
एकादशांगी इस तथ्य की त्रिकाल विश्वसनीय साक्षी है इस सूत्र को पढ़ कर तो उनके अन्तर्चक्षु सहसा कि न तो श्रमण भगवान महावीर ने, न आर्यावर्त की उन्मीलित हो उठे। श्रमण भगवान् महावीर ने और उनके । प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल की चौवीसी के किसी भी पूर्व हुई अनन्त चौवीसियों के सभी तीर्थकरों ने सुस्पष्ट रूप तीर्थंकर ने और न ही अनाद्यनन्त की अनन्तानन्त उत्सर्पिणी, में कहा है
अवसर्पिणी की चौवीसियों के किसी भी तीर्थकर ने इस ___ "स्वयं के जीवन निर्वाह, वन्दन, कीर्ति, मान-सम्मान प्रकार का न तो कोई आदेश दिया न कोई निर्देश दिया एवं पूजा पाने के लिये, जन्म-जरा मृत्यु से मुक्ति प्राप्त और न इस प्रकार का कथन ही किया। इसके विपरीत करने अथवा दुःखों का निवारण करने के लिये न तो स्वयं उपर्युक्त सूत्र के माध्यम से पांचों स्थावर निकाय और पृथ्वीकाय का आरम्भ-समारम्भ करें, न दूसरों से करवायें छठे त्रस निकाय के आरम्भ-समारम्भ-हिंसा आदि का १. दशवैकालिक सूत्र/अ. ४. २. आचारांग - १/१/२/४
श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा
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