Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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से हमारे भीतर के मिथ्यात्व को हटाकर बेजान, निर्जीव, परम्पराओं प्रदर्शनों पर प्रहार एवं सत्कृत्यों की अनुमोदना करते हुए जीव राशि को चतुःशरणगमन करने हेतु हर क्षण प्रेरित करते दृष्टव्य हैं -
“ आपके हृदय - उद्गार - धर्म ठहरने के लिए शरीर, वचन, मात्र स्थान शुद्धि ही नहीं वल्कि हृदय की शुद्धि चाहिए । हृदय की ऋजुता - सरलता धर्म की आवश्यक शर्त है जहाँ छल-कपट है, जलेवी के गोल-गोल आँटे की तरह वक्रता है, माया है, वहाँ शुद्धि नहीं हो सकती । धर्म नहीं हो सकता । "
जब-जब मैंने आपका साहित्य पढ़ा, मुझे लगा, जैन धर्म में चल रहे वाद-विवाद और ईर्ष्याजन्य प्रवादों से आपका हृदय दुःखी है। इसी कारण आपके हृदय में एक वेदना का स्वर यदा-कदा मुखरित हो जाता है । एक वार्तालाप के दौरान भी मैंने उनके हृदय की व्यथा को जाना । यह व्यथा और वेदना थी जैन संघ में व्याप्त विषमता की, परस्पर के ईर्ष्या द्वेष की, साम्प्रदायिक संकीर्णताओं की, संघों में सुरसा के वदन सी फैल रही मैत्री और स्वकेन्द्रीकरण की । आप विशिष्ठ तत्त्वचिंतक के रूप में सुवासित हो अपने 'सुमन' होने को सार्थक कर रहे हैं। एक बार आपने समयानुकूल समाधान देते हुए कहा कि समाज में मैत्री व विश्वबन्धुत्व के लिए हमें वीतराग तीर्थंकर द्वारा निर्दिष्ट मैत्री, प्रमोद, करुणा, व मध्यस्थ भाव ही अपनाना होगा।
मैं व्यक्तिगत रूप से आपके सम्पर्क में कम ही रही पर आपकी लेखनी व प्रवचन श्रवण ने मेरी श्रद्धा व आस्था को दृढ़तर बनाया। मैंने स्वयं देखा है बहुत से ज्ञानी विद्वान साधु, गृहस्थ, तत्त्वज्ञानी श्रावक आपके पास आकर घंटों-घंटों चरणों में बैठकर प्रश्न पूछते और एक सन्तुष्टी व आत्मिक अनुभूति के साथ पुनः लौटते हैं मानों उन्हें कोई सच्चा आश्रय मिल गया है जहाँ वे अपने दिल की बात निःसंकोच कह सकते हैं। आप स्व समुदाय
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वंदन - अभिनंदन !
व पर समुदाय के साथ एक जैसा वात्सल्य भाव रखने के कारण समुदाय विशेष के न रहकर समस्त संघों के पूज्यनीय व वन्दनीय हैं। शब्द व्याकरण के ममर्श, प्रचंड बुद्धि व अनेकों प्रतिभा के स्वामी होने पर भी अहंकार नहीं । आपने अहंकार की विस्तृत व्याख्या करते हुए बड़ा सुन्दर चिन्तन दिया -
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“मैं और परमात्मा” दोनों एक साथ नहीं रह सकते । वीतरागता को पाना है / परमात्मा को पाना है तो मैं को तिरोहित करना पड़ेगा” ।
सोचती हूँ जन्म तो हमने भी मनुष्य के रूप में लिया है किन्तु अज्ञानता, कषाय, मोह की वजह से न जाने कब से ८४ लाख जीवयोनी के चक्कर काट रहे हैं। कब तक इन चार गतियों के चक्कर में डूबते रहेंगे? पर गुरुदेव जैसी कुछ आत्माएँ मानव जीवन प्राप्त कर आत्मसाधना के शिखर पर आरोहण करती जाती हैं और अपने आत्म प्रकाश से जन-जीवन में आत्मजागृति का शंखनाद करके अनेकों आत्माओं को कल्याण के मंगलमय मार्ग पर अग्रसर करती हैं। निर्भीक, निष्पक्षता गुण की वजह से साधु व श्रावक समाज द्वारा चातुर्मास में व्याप्त हो रही छलना व आडम्बरों का खुलकर विरोध करते हैं । कहीं कोई भय नहीं, लाग लपेट नहीं। मैंने सदा आपको अलिप्त व अनासक्त ही पाया।
चेन्नई चातुर्मास का ही प्रसंग है। भोजनशाला में लोग भोजन कर रहे थे । सैकड़ों लोगों का भोजन हो रहा था। एक जैनैतर बच्चा भी भोजन करने बैठ गया । कार्यकर्ताओं ने उस अबोध बालक को अपमानित व प्रताडित किया और भोजन करते हुए को वहाँ से उठा दिया। गुरुदेव ने दूसरे दिन प्रवचन में हमारे इस ओछेपन का इतना मार्मिक चित्रण किया कि सबके हृदय पश्चात्ताप से भर उठे और आत्म ग्लानि होने लगी ।
गुरुदेव के करुणामय हृदय में रात दिन जीवों के कल्याण की धारा प्रवाहित होती रहती है। परोपकार तो
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