Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
इन्द्रादयस्मता यत्र सम्पमत्य निरकारम् ।
प्रत्यक्ष श्री जिनाधीशं पूजयन्तिस्म साङ्गना ॥४४।। अन्वयार्थ --(प्रत्यक्ष) प्रत्यक्ष रूप में (इन्द्रादयः) स्वर्ग के इन्द्रादि देव (सदा पत्र सभागत्य) सदा जहाँ पाकर (निरन्तरम् ) निरन्तर (जिनाधीशं) जिनेन्द्रप्रभु का (पूजयन्तिस्म) पूजते थे।
भावार्थ ----स्वर्गलोक के इन्द्रादि देव भी उस मगध देश की शोभा से आकृष्ट होकर पाया करते हैं और अति विशाल भन्न जिनभवनों विराजमान जिनेन्द्र प्रभु की पूजा करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है उस मगध देश की शोभा कथञ्चित् स्वर्ग से भी अधिक मनोहर है।
पुरं राजगृहं तत्र पुरन्दर पुरोपमम् ।
पञ्च सप्ततलोत्तुङ्ग गृहा यत्र निरन्तरम् ॥४५॥
अन्वयार्थ (तत्र) उस मगध देश में (पुग्न्दरपुरोपमम् } इन्द्रपुरी के समान (राजगृहं पुर) राजगृह नामक नगरी है (यत्र) जहाँ (निरन्तरम) व्यवधान रहित अर्थात् पंक्तिबद्ध (उत्तुङ्ग) ऊँचे (पञ्चसप्तताल) पाँच-सात मंजिल के (गृहा) मकान हैं ।
भावार्थः उस गमध देश में इन्द्रपुरी के समान अति सुन्दर और वैभवशाली राजगृह नामक नगरी है, जहाँ सामान्य नगर निवासियों के मकान भी ऊँचे ऊँचे पाँच सात मंजिल वाले हैं । पंक्ति बद्ध वे मकान अति मनोहर प्रतीत होते हैं ।।४।।
नानावर्णध्वजावातैर्मरुद्धृतर्मनोहरैः ।
लसद्धाटककुभायैः स्वर्ग बा हसतिस्मयत् ॥४६॥ अन्वयार्थ---(नानावर्ण) अनेक प्रकार के वर्णवाने (मनोहरैः) मनोहर (मरुद्भूतः) पवन से दोलायमान (ध्वजावातै:) ध्वजाओं से और (हाटक कुम्भाद्यः) सूवर्णमय कलशों से (लसत्) शोभायमान वे प्रासाद ऐसे मालूम पड़ते हैं मानों (यत् स्वर्ग वाहसतिस्म) स्वर्ग परिहास कर रहा था । अर्थात् स्थर्गलोक के विमानों या भवनों के समान रमागीक हैं।
भावार्थ सभी प्रासादों के शिखर पर ध्वजायें फहरा रही हैं, और सुवर्ण मय कलश उनके शिखरों पर लगे हैं जिससे उनकी शोभा स्वर्ग के विमान के तुल्य दोखती है अथवा स्वर्गलोक ही उठकर यहां आ गया है ऐसा प्रतीत होता है ।
यत्र श्रीमज्जिनेन्द्राणां रत्नतोरण संयुताः । स्वर्गापवर्ग मार्गा वा प्रासादाः प्रविरेजिरे ॥४७।।