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[ गोगटसार कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रशारण
नोमागम भेदनि का वर्णन हैं । तहां मूल प्रकृतिनि विर्षे इनकौं कहि उत्तर प्रकृतिनि विर्षे वर्णनहै । तहां औरनि का सामान्यपन संभवपना कहि, नोकर्मरूप तद्वयतिरिक्तनो-आगम-द्रव्य का जुदी-जुदी प्रकृतिनि विर्षे वर्णन है। पर नोआगमभाव का समुच्चयरूप वर्णन है ।
बहुरि दूसरा बंध-उदय-सत्ययुक्तस्तवनामा अधिकार है । तहां नमस्कार पूर्वक प्रतिज्ञाकरि स्तवनादिक का लक्षण वर्णन है । बहुरि बंध-व्यायान विर्षे बंध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप भेदनि का, अर तिनविष उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजधन्यपने का; अर इनविर्षे भी सादि, अनादि, ध्र व, अध्र व संभवने का वर्णन है।
बहरि प्रकृतिबंध का कथन विधै गुणस्थाननि विर्षे प्रकृतिबंध के नियम का; तहां भी तीर्थंकरप्रकृति बंधने के विशेष का, अर गुणस्थाननि विषै व्युच्छित्ति, बंध, अबंध प्रकृतिनि का, तहां भी व्युच्छित्ति के स्वरूप दिखायने कौं द्रव्याथिक-पर्यायाथिकनय की अपेक्षा का, अर गति आदि मार्गणा के भेदनि विर्षे सामान्यपर्ने वा संभवते गुणस्थान अपेक्षा व्युच्छित्ति-बंध-प्रबंध प्रकृतिनि के विशेष का, अर मूलउत्तर प्रकृतिनि विर्षे संभवते सादिन आदि देकर बंध का, तहां अध्रुव-प्रकृतिनि विर्षे सप्रतिपक्ष-निःप्रतिपक्ष प्रकृतिनि का, अर निरंतर बंध होने के काल का वर्णन है ।
बहुरि स्थितिबंध का वर्णन विर्षे मल-उत्तर प्रकृतिनि के उत्कृष्ट स्थितिबंध का, अर उत्कृष्ट स्थितिबंध संज्ञी पंचेंद्रिय ही के होय. ताका, अर जिस परिणाम तें वा जिस जीव के जिस प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध होय ताका, तहां प्रसंग पाय उत्कृष्ट ईषत् मध्यम संक्लेश परिणामनि के स्वरूप दिखावने कौं अनुकृष्टि आदि विधान का, अर मल-उत्तर प्रकृतिनि के जघन्य स्थितिबंध के प्रमाण का, अर जघन्य-स्थितिबंध जाक होय ताका वर्णन है । पर एकेंद्रो, बेइंद्री, तेइंद्रो, चौइंद्री, असंझी, संजी पंचेंद्री जीवनि के मोहादिक की उत्कृष्ट-जघन्यस्थिति के प्रमाण का, तहां प्रसंग पाइ तिनके प्राबाधा के कालभेदकाण्डकनि के प्रमाण कौं कहि भेद प्रमाण करि गुणितकांडक प्रमाण कौं उत्कृष्टस्थिति विर्षे घटाएं जघन्य स्थिति का प्रमाण होने का वर्णन है ।
बहुरि एकेंद्रियादि जीवनि के स्थितिभेदनि कौं स्थापनकरि तहां चौदह जीवसमासनि विर्षे जघन्य-उत्कृष्ट-स्थितिबंध पर अबाधा पर भेदनि के प्रमाण पर तिनके जानने का विधान वर्णन है । तहां प्रकृतिनि का जघन्य स्थितिबंध जिनके होइ
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