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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 58 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
ओर देखते हो, कि महाराज! कुछ उपाय बता दों अरे! शोधन आप को ही करना होगां ध्यान रखना, उपादान की योग्यता तुम्हारी निर्मल होगी, तो अल्पचिंतन भी चेतन-प्रभु को जगा देगां देखो, तीर्थंकर भगवान जैसा निमित्त भी काम में नहीं आया और जब उपादान जाग्रत हुआ तो शेर की पर्याय में दो निग्रंथ संतों की वाणी काम आई और भगवन्त बनाकर चले गये हे भावी भगवान! शेर की भवितव्यता कितनी निर्मल थी, कि जिसने मृग को पंजा मारकर आँसू टपका लिये हे नरसिंहो! अभक्ष्यों का सेवन करके तुम अपनी भवितव्यता को नहीं निहार रहे हों कौन नहीं जानता कि अमुक वस्तु भक्ष्य है कि अभक्ष्य? अरे! ऐसे निर्मलकाल में भी आप नहीं सुधर सके, तो छठवें काल में सुधरने का कोई अवसर नहीं हैं आज विवेक भी काम कर रहा हैं जिनवाणी भी है, अर्हन्त-बिम्ब भी है, निग्रंथ भी तुम्हारे पास हैं इसे मैं पुण्य कहूँगा, लेकिन वैभव का नाम कभी पुण्य मत कह देनां पूज्यपाद स्वामी ने पुण्य को वैभव नहीं लिखां जिससे आत्मा पवित्र हो, उसका नाम पुण्य हैं
भो ज्ञानी! पवित्र करने वाला कोई द्रव्य है, तो वह रत्नत्रयधर्म हैं रत्नत्रयधर्म के प्रति जिसकी भावना निर्मल हो रही है, भक्ति उत्पन्न हो रही है, अरहंत वाणी पर भावना है, श्रद्धा है, विश्वास है, तो बिल्कुल नहीं घबराना, भवितव्यता निकट हैं आपने कोई खोटा कृत्य किया था, तो खोटे काल में आ गये, पर आवश्यक नहीं कि खोटा हमेशा खोटा ही बना रहें आप इस पर्याय में मारीचि की पर्याय से ज्यादा खोटे तो नहीं हो, क्योंकि तीन सौ त्रेसठ मिथ्या मत नहीं बना रहे हों इसलिए तुम पर्याय के खोटे भाव को द्रव्य का खोटा मानकर मत बैठ जानां 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' में कथन है कि अपने परिणाम के कर्ता व भोक्ता तुम स्वयं हों ध्यान रखना, अच्छा करोगे तो अच्छा भोगोगे और बुरा करोगे तो बुरा भोगोगे, अब निर्णय आप को स्वयं करना
भो ज्ञानी! देखो भगवान की प्रतिमा को, हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं आप नमोस्तु भी करो, तो आशीर्वाद नहीं देते और निंदा करो तो नाराज भी नहीं होतें भगवन्त समन्तभद्र स्वामी ने लिखा
न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे, न निंदया नाथ विवान्तवैरें
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः,पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः 57 स्व.त्रो. हे प्रभु! आप निंदा करने वाले पर बैर-भाव नहीं करते हो और प्रशंसा करने वाले पर खुश भी नहीं होते, क्योंकि आप वीतरागी हों जब तक हर्ष-विषाद है, तब तक वीतराग भाव नहीं हैं वीतरागी के हर्ष-विषाद कहाँ और हर्ष-विषाद वाले वीतरागी कहाँ ? वंदना भी करना, तो देख लेना कि हमारा वंदनीय कैसा है? इसकी वंदना करने से मैं बंध तो नहीं जाऊँगा? मैं बंधन के लिए वंदना नहीं करता हूँ, मैं निर्बन्ध होने के लिए वंदना करता हू
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