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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 266 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
देखते ही देखते मुनिश्री को अजगर ने निगल लियां अतः वे स्वर्ग को प्राप्त हुए तथा कमठ का जीव पुनः मरकर नरक की वंदना करने चला गयां
भो ज्ञानी! परपंरा से वे बनारस के राजा अश्वसेन और महारानी वामा के यहाँ तीर्थंकर बालक के रूप में उत्पन्न हुएं संसार की विचित्रता तो देखो, प्रभु पारसनाथ के नाना थे, उनकी माँ के पिता कमठ का जीवं नाना के घर में बधाइयाँ चल रही हैं कि मेरी बेटी के तीर्थंकर बालक उत्पन्न हुआ हैं फिर देखना संसार की विडंबना, जब बालक पारसनाथ सैर करने जा रहे थे, तो वही नाना का जीव पंचाग्नि तप कर रहा था, जसकी लकड़ियों में नाग-नागिनी झुलस रहे थें पारसनाथ ने कहा- आप इन जीवों को क्यों जला रहे हो? तू बालक मुझे समझाता हैं हे तपस्वी! यदि आप मेरी बात नहीं मानते तो इस लकड़ी के विभाग करके देख लों क्योंकि तपस्वी धर्म चक्षु से देख रहा था और प्रभु तो अवधि के चक्षु से देख रहे थे अतः जैसे ही लक्कड़ का विभाग किया, अर्धजले नाग-नागिनी निकल पड़ें तब प्रभु ने महामंत्र " णमोकार" सुनायां वे नाग-नागिनी मरकर धरणेन्द्र-पद्मावती हुए भो ज्ञानियो ! ध्यान रखना, कोई भी जीव परेशान हो, मर रहा हो तो कम से कम पंचपरमेष्ठी वाचक महामंत्र तो सुना ही देनां यह मत सोचना कि इसकी कौन सी पर्याय है? ग्लानि नहीं करना, पर्याय को नहीं देखना, बल्कि ज्ञानी ! पर्याय में बैठे प्रभु को देखना, क्योंकि पर्याय को देखते रहोगे, तो कभी भी तुम परमात्मा को नहीं देख पाओगें
भो ज्ञानी! पारसनाथ वन की ओर चल दिये तथा वह तपस्वी आर्त्तध्यान से मरकर ज्योतिष्क जाति का देव होता हैं वे प्रभु पारसनाथ अहिक्षेत्र में ध्यान कर रहे थें जैसे ही उन्हे कमठ के जीव ने देखा तो शत्रुता की अग्नि भड़क पड़ी, उसने खूंखार रूप बनाकर गंभीर गर्जना करते हुए मेघ आच्छादित कर दिये, मूसलाधार वर्षा की, ओले भी गिरायें उस समय प्रभु पारसनाथ लख रहे हैं कि संसार का परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, यह तन भी मेरा नहीं हैं चैतन्य ध्यान में लीन प्रभु पारसनाथ ने पूर्व में जिनको "णमोकार" सुनाया था. उसका आसन हिलने लगा अहो ! तीर्थेश्वर पर उपसर्ग आया है, तुरन्त पहुंच गयें हे श्रावक, श्राविकाओ ! धर्मात्माओ के उपसर्ग को दूर करने के लिए सभी को धरणेन्द्र- पद्मावती बनने की आवश्यकता है, क्योंकि जब-जब तीर्थों अथवा मुनियों पर उपसर्ग आये हैं ये श्रावक शांत बैठ गये, मुनियों ने ही उपसर्ग दूर किये हैं देखो ! जब रावण कैलाश को हिला रहा था, तब एक भी आवक नहीं पहुँचा, मुनिराज को ही अपना अंगूठा दबाना पड़ा आज तुम सब शांत बैठे हों देखो, प्रथम तीर्थकर की निर्वाण - भूमि दिख नहीं रही है? कहीं ऐसा न हो कि बीस तीर्थकरों की निर्वाणभूमि भी तुम्हारे हाथ से चली जाये? क्योंकि बाईसवें तीर्थंकर की निर्वाणभूमि में तुम नहीं जा पा रहे हो, सब शांत बैठे हों
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भो ज्ञानी! जब अकम्पनाचार्य पर उपसर्ग आया तो विष्णुकुमार मुनिराज को दीक्षा छोड़नी पड़ी, लेकिन श्रावकों ने कुछ नहीं सोचां आज आवश्यकता है आपको भगवान् पारसनाथ और उन तीर्थ - भूमियाँ के उपसर्ग
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