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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 283 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
भो चेतन! आहार का दान होता है, औषधि का दान होता है; पर रक्तदान दान नहीं हैं भूखा आये तुम्हारे पास, एक रोटी है, चार विभाग करके उसे खिला देना, लेकिन शरीर के मांस को, स्वयं के मांस को निकालकर कभी नहीं खिलानां जैन-सिद्धांत उसे धर्म नहीं कहेगां वह हिंसा ही हैं अर्हन्त विहार कालोनी में एक मकान के नीचे बहुत सारी रोटियों का ढेर लगा था और गाय खा रही थी, उन सबमें फफूंद लगी थीं अहो! यदि खिलाना ही था तो शाम को खिला देतें लगता है कि खिलाने की दृष्टि ही नहीं थी, वह तो हो गयीं इतना लोभ होता हैं अरे! कोई गरीब है, उसे खिलाना ही है तो अच्छा खिला दों आत्मघात करके या शरीर का घात करके किसी को खिला देना धर्म नहीं है, हिंसा ही है और अभक्ष्य खिलाया है, वह तो प्रत्यक्ष ही हिंसा हैं इसलिए भगवान् कह रहे है कि जिसकी मति विशुद्ध नहीं है, वह अहिंसा को नहीं समझ पाएगां जिस जिनेंद्र की देशना में राग-द्वेष को, हँसी-मजाक करने को, चुगली करने को, खरी-खोटी बातें करने को हिंसा कहा हो, उस जिनेंद्र की देशना में प्राणी के घात को कैसे अहिंसा कहा जायगा?
भो ज्ञानी! जो भगवान् जिनेंद्र की वाणी के रहस्यों को जाननेवाला है, वह विशुद्धमति, निर्मल बुद्धिवाला जीव नयों को जान लेता हैं वह जीव लोक की पाखण्डता को, लोक के प्रलोभन को जानकर, मूढ़ता को छोड़कर, तत्त्व-मनीषा का प्रयोग करके, इतना ही ध्यान रखता है कि यह सब कुछ होता हैं इसलिए रागद्वेष नहीं करतां भो मनीषियो! आज कोई मारे, पीटे, लूटे, कुछ भी कहे, फिर भी सोचना, 'यह सबकुछ होता हैं।
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धर्मस्थल, कर्नाटक श्री चन्द्रप्रभु जिनालय
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