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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 578 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
मनीषियो! आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने ग्रन्थराज पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में अपूर्व-अपूर्व अमृत-बिंदुओं का रसास्वादन कराया है, जिसमें सम्यक्त्व से निर्वाण तक की प्रक्रिया का कथन कर दियां अंत में लघुता और अकर्तृत्व भाव दर्शाते हुए इन कारिकाओं में समझा रहे हैं कि नय की एकांत-दृष्टि ही मिथ्यात्व है, अनेकांत दृष्टि ही सम्यक्त्व हैं नय कभी वस्तु का पूर्ण कथन नहीं कर पाता, वह एक अंश का ही कथन करता हैं इसलिए एक नय के द्वारा कभी भी लोकव्यवहार नहीं चलता तथा परमार्थ की सिद्धि भी नहीं होती अनेक नयों के माध्यम से ही परमार्थ को जाना जाता हैं
भो ज्ञानी! प्रमाण अपने आप में मौन है, जबकि वस्तु अनेक धर्मात्मक हैं उन धर्मों को एक साथ कहने की सामर्थ्य छद्मस्थ में नहीं, केवली में हैं छद्मस्थ उसको सुनने की सामर्थ्य भी नहीं रखतां देखो क्षयोपशम की महिमा, 'तत्त्वार्थ-सूत्र' का पाठ करने में आपको 48 मिनिट या एक घण्टा लगता होगा, जबकि द्वादशांग का पाठ गणधर-परमेष्ठी एक अंतर्मुहूर्त में कर लेते हैं इस क्षयोपशम को उन्होंने बहुत निर्मल साधना के द्वारा प्राप्त किया हैं जब तक वैसे नहीं बनोगे, तब तक इतना क्षयोपशम नहीं मिलेगा, क्योंकि उन्होंने अपने शब्दों का दुरुपयोग नहीं किया, अपने चिंतन को विपरीत-धारा में नहीं ले गये, अपने ज्ञान का प्रभाव धर्म की विराधना में नहीं कियां उन्होंने अपने ज्ञान को निर्मल साधना में लगायां
__ भो पुरुषार्थी! आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी इस अंतिम कारिका में समझा रहे हैं कि क्षयोपशम का मिल जाना बहुत बड़ी बात नहीं, क्षयोपशम का उपयोग करना बहुत बड़ी बात हैं वैभव का मिलना भी पूर्व सुकृत का परिणाम है, पर वैभव का उपयोग कितना किया जाता है; यह वर्तमान का पुरुषार्थ हैं मारीचि ने भी क्षयोपशम प्राप्त किया था, लेकिन उसने क्षयोपशम का निर्मल उपयोग नहीं कियां तीन-सौ-त्रैसठ मिथ्यामत चल गये तथा वर्द्धमान की पर्याय में जब उसी जीव ने क्षयोपशम का निर्मल उपयोग किया तो आज हम निर्वाण कल्याणक मना रहे हैं दोष किसे दें ? जो जीव एक पर्याय में वीतराग शासन का परम-विरोधी था, वही जीव अंतिम पर्याय में वीतराग शासन को चलाने वाला हुआं इसलिए शत्रुता द्रव्य से नहीं, पर्याय से थीं पर्याय की शत्रुता में जो चला जाता है, वह अपने परिणामों को विकृत कर लेता हैं जो द्रव्य के स्वभाव में चला जाता है, वह दिव्य-दृष्टि से भगवत्ता को निहार लेता हैं यदि एक पर्याय की भूल से एकांत दृष्टि में चले गये, तो कितनी पर्याय का विनाश हो जाएगां इसलिए यदि जिनवाणी समझ में नहीं आ रही है तो मौन हो जाना, लेकिन बोलना मतं आप मौन हो जाओगे तो लोग आपको अज्ञानी कहेंगे, परंतु अति-समझ दिखाकर अनंत को नाशमय मत बना देनां
भो चेतन! पंचशील-सिद्धांत चरणानुयोग की प्रवृत्ति हैं स्याद्वाद-अनेकांत यह सर्वज्ञ के दर्शन की दृष्टि हैं यह दो सौ पच्चीस वीं कारिका प्रत्येक मंदिर में उत्कीर्ण होना चाहिएं हमारे आगम को समझने की दो पद्धतियाँ हैं-एक अक्षरों को पढ़ो और दूसरी कथा को पढ़ों यह कारिका बीना के मंदिर के मुख्य द्वार के
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