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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 353 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
भो ज्ञानी! माँ जिनवाणी कहती है कि कण-कण स्वतंत्र है, प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र हैं अपने परिणमन से परिणामी बनकर प्रत्येक द्रव्य चलता हैं उसमें राग करके कर्ता क्यों बन रहे हो? यह भी बहुत बड़ा मिथ्यात्व हैं तू पुण्य का करार देकर औगुण हजार कर रहा हैं यदि ऐसा ही हो जायेगा तो करणानुयोग नाम की कोई वस्तु नहीं होगी अरे! व्यवहारिकता, राष्ट्र-व्यवस्था, विश्व-व्यवस्था सब कर्म-सिद्धांत पर टिकी हुई हैं बात को समझनां आपने अपने बच्चे की शादी कर दी आप कहेंगे-महाराज जी! कहीं बच्चा व्यभिचार-जैसे गलत काम करने लगता, तो सामाजिकता बिगड़ती, इसीलिए हमने ऐसा कियां यहाँ करणानुयोग कहता है कि उत्कृष्ट तो यही था कि ब्रह्मस्वरूप में लीन रहता, परंतु इसके पास सामर्थ्य की कमी थीं अतः विश्व की अनेक स्त्रियों पर कुदृष्टि जाती, तो अनंत का बंध करतां अहो! पिता तूने श्रेष्ठ काम किया, जो अपने बेटे को अनंत स्त्रियों के भोग से बचाकर एक में संयमित कर दियां इस अपेक्षा से जिनवाणी से पूछोगे, तो वह पुण्य कह देगी परंतु वही जिनवाणी तुझे पापी भी कहेगी, क्योंकि तूने अपनी संतान को विषयों में डालकर पाप में डाल दियां यदि वह स्वयं संयम की ओर जा रहा हो, तब तो जिनवाणी ऐसा ही कहेगी और जब वह अनंत असंयम की ओर जा रहा हो, तो जिनवाणी कहेगी कि तुमने अपने बच्चे की शादी करके एकदेश-संयम का पालन कराया हैं यह जैनसिद्धांत हैं
___ भो ज्ञानी! चर्चा परिग्रह की चल रही है और नारी भी सबसे बड़ा परिग्रह है, संसार को बढ़ानेवाली लता (बेल) हैं अब समझ जाओ, संसार की लता (बेल) भी दूसरे पर चढ़कर ही बढ़ती हैं हमने उनको लक्ष्मी बनाया, उन्होंने तुमको देव बना दियां एक दूसरे को बढ़ोत्तरी देकर दोनों की सांसारिक बेल बढ़ गई इसलिए भूल न जाना, फूल न जाना, वरना कूलना पड़ेगां
मनीषियो!सम्यकदर्शन के चोरों (अंनतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ) का सरदार मिथ्यात्व है, क्योंकि जीव द्वितीय कषाय (अप्रत्याख्यानावरणी, क्रोध, मान, माया, लोभ) के कारण देशसंयम को स्वीकार नहीं कर पातां वह कषाय देशचारित्र का निरोध कर रही है, देशचारित्र को नहीं होने देती, व्रती बनने के परिणाम भी नहीं आतें ध्यान रखना, सम्यकदर्शन को तो चारों गतियों का बंधक भी प्राप्त कर सकता है, लेकिन चारित्र को देवायु का बंधक अथवा अबंधक मनुष्य या संज्ञी पंचेन्द्रिय तिथंच ही प्राप्त कर सकता हैं इसलिए स्वयं का निर्णय कर लेनां जिस जीव को नरक आयु का बंध हो चुका है, वह देश संयम भी धारण नहीं कर सकतां मनुष्य अथवा तिर्यंच-आयु का जिसको बंध हो चुका है, उसके व्रत लेने के परिणाम भी नहीं होतें याद करो, राजा श्रेणिक ने तीर्थंकर वर्द्धमान स्वामी के समवसरण में प्रश्न किया था- प्रभु! मैं संयम स्वीकार क्यों नहीं कर पा रहा? "राजन! आपको नरकाय का बंध हो चुका, इसलिए संयम के भाव नहीं आ रहे हैं" आप वृद्ध हो गये, मुनि नहीं बन पा रहे हो, लेकिन घर में बैठकर देशसंयम का पालन तो कर सकते हो, किसने रोका
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