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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 508 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
उनका भी राग मत करो, क्योंकि स्थान मोक्षमार्ग नहीं हैं स्थानों से मोक्ष नहीं बनता, स्थानों के बढ़ाने से मोक्ष नहीं होतां मोक्ष तो गुणस्थानों की वृद्धि से होता हैं
भो ज्ञानी! जैसे वृद्ध के लिए लाठी का सहारा है, वैसे ही आज की तपस्या तुम्हारे लिए मोक्ष का सहारा बन जाएगीं इसलिए मत सोचना कि मेरी आयु निकल गईं अभी भी तुम्हारे पास बहुत उपाय हैं संसार में चलने के लिए जीव नये-नये उपाय खोज लेता हैं बाजार के दूध की व राशन की डायरी है, परंतु जीवन की डायरी नहीं हैं ओहो! सोचो, जीवन की डायरी बना लों इतना तो कर दो कि अब इतनी उम्र तक कमाएँगे उसके बाद कुछ नहीं करेंगे
भो ज्ञानी ! अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि हमने आपको बहिरंग तपों का व्याख्यान कर दिया हैं अब अंतरंग तपों की चर्चा सुनों कैसे करेंगे आप अंतरंग ताप ? अंदर में बैठकर और बहिरंग क्यों करें? अंतरंग की सिद्धि के लिएं जैसे, बटलोई को तपाते हो, पर बटलोई के तपाने मात्र पर दृष्टि नहीं है, दृष्टि दूध पर हैं उसी प्रकार मुमुक्षु जीव बहिरंग तप करता जरूर है, लेकिन दृष्टि अंतरंग आत्म- दुग्ध को शुद्ध करने की होती हैं यदि अंतरंग पर दृष्टि नहीं है, तो बहिरंग तप कार्यकारी नहीं होगां बटलोई के तपे बिना दुग्ध तपता भी तो नहीं जब तक बहिरंग शुद्धि नहीं होगी, तब तक आत्मशुद्धि संभव नहीं हैं समंतभद्र स्वामी 'स्वयंभू स्तोत्र' में लिखते हैं
बाह्यं तपः परम- दुश्चरमाचरम्य माध्यात्मिकस्य तपसः परिवृंहणार्थम्ं ध्यानं निरस्य कलुषद्वय मुत्तरस्मिन् ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्नें 83
यह सुनिश्चित है कि बहिरंग तपस्या से मुनिराज तो बनते हैं, परंतु गुणस्थान तभी बनता है जब बहिरंग में निर्ग्रथ भेष तथा अंतरंग में तप होता है भो ज्ञानी! तप गृहस्थ के गौणरूप से और यतियों के प्रधान रूप से हैं आपका तप अभ्यासरूप है तो यति का तप तपस्यारूप हैं श्रावक कितनी ही तपस्या करे, लेकिन तपस्वी नहीं कहलातां परन्तु साधु जब दीक्षा ले लेता है, उसी दिन से तपस्वी कहलाने लगता हैं दीक्षा का नाम ही तप हैं आचार्य भगवान् कह रहे हैं कि विनय पहला तप हैं जब तक कषाय-भाव समाप्त नहीं होंगें तब तक विनय-भाव नहीं होता हैं इसलिए अंतरंग तप है विनयं सेवा के परिणाम तभी आते हैं, जब अंतरंग में भक्ति भाव होता हैं इसलिए, निरपेक्ष भाव से सेवा वैयावृत्ति करने को अंतरंग तप में रखा है, क्योंकि अहंकारी किसी की सेवा नहीं कर सकता हैं चित्त की शुद्धि के लिए तो स्वयं ही गुरु चरणों में दंड लेने के लिए जाया जाता हैं प्रभु! मुझे शुद्ध करों जिसके आत्मा में विशुद्धता नहीं है, उसके प्रायश्चित लेने के परिणाम त्रैकालिक नहीं होते हैं निज चित्त की शुद्धि जिससे हो, उसका नाम प्रायश्चित हैं कायोत्सर्ग का अर्थ है - शरीर से ममत्व छोड़ देनां जैसे भगवान बाहुबली स्वामी पर साँप चढ़ गये, बेलें लग गईं, बांमि बन गईं, Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
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