________________
पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 515 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
का मुण्डन यानि मन को वश में करो, वचन को वश में करो, शरीर को वश में करो, इंद्रियों को वश में करो और हाथ-पैर के मुण्डन का तात्पर्य चंचलता का त्याग करों इस प्रकार से तीन गुप्तियों का कथन किया हैं पर जब तक ये गुप्तियाँ तुम्हारे पास नहीं हैं, तब तक मोक्ष मार्ग में तुम्हारा प्रवेश भी संभव नहीं हैं अहो! यहाँ संस्कारों की चर्चा कर रहे हैं अनुभव करके देखना कि एक क्षण का कुसंस्कार अथवा एक समय का कुसंस्कार लोगों की दृष्टि में आया न आये, लेकिन तुम्हारे परिणामों को उथल-पुथल करके चला जाता हैं
भो ज्ञानी! तुम्हें पाप से डर नहीं लग रहा, मगर पापी कहलाने से डर लग रहा हैं बहुतेरे लोग यहाँ भी ऐसे बैठे होंगे जो वास्तव में पापी तो हैं, पर पापी कहलाने से डरते हैं और पाप करने से नहीं डरतें जो पाप से डरते हैं, वे तो मुमुक्षु हैं, परन्तु जो पापी कहलाने से डरते हैं, उनका अनन्त संसार बंध चुका है, क्योंकि एक ओर पाप भी चल रहा है और दूसरी ओर मायाचारी भी चल रही हैं पुण्य के योग में कुछ भी कर डालो, लेकिन ध्यान रखो, पाप का योग नियम से सामने आयेगा और तुम्हारी परिणति ही तुमको दण्डित कर देगी चाहे तुम कहीं भी चले जाना, चाहे समवसरण में बैठ कर आप अपने भव को तथा वर्तमान की भावनाओं को देख लेनां जिस क्षेत्र में प्राणी मात्र के लिए समान आश्रय मिलता हो, प्राणी मात्र के दुःखों का विलोप होता हो, उस सभा का नाम समवसरण सभा हैं जहाँ तिर्यंच, देव और मनुष्य तीन गति के जीव एक साथ बैठते हैं, पर नारकी नहीं आ सकता, क्योंकि उसका ऐसा तीव्र कर्म हैं अहो! तीन गति के जीव तो समवसरण में आ जाते हैं, चौथी गति का नहीं आ पातां क्योंकि जो समवसरण में साम्य भाव से नहीं बैठ पाये, समझ लेना कि वह चौथी गति का बंध कर चुका हैं देखो, तीर्थ-भूमि और सिद्ध भूमि में पहुँचकर भी कोई पाप का संचय कर ले, परंतु पाप धोने का एक मात्र स्थान मानस्तंभ हैं जिसने मानस्तंभ के पास भी पाप का बंध कर लिया, उसको धोने के लिए कोई स्थान नहीं उसको तो मात्र निगोद जाना हैं चौबीस तीर्थंकर के समवसरण में कोई भी समवसरण ऐसा नहीं जो मानस्तंभ से शून्य हों जितने पापी व अहंकारी हों, वे मानस्तंभ के सामने निहारें और देख लें कि हम कितने ऊँचे हैं? तुमसे ऊँचे वे जिनेन्द्र देव विराजे हैं जिसने मानस्तंभ के सामने मानकर लिया हो, उसके मानगलन का स्थान कोई बचा ही नहीं इंद्रभूति गौतम जैसे अहंकारी का मान मानस्तंभ के नीचे गल गया था
भो ज्ञानी! आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि यदि संयम की ओर बढ़ना चाहते हो तो संस्कार निर्मल कर लेना और मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ देनां जो सरल स्वभावी होते हैं, वे आगम/ पुराण नहीं पढ़ते, किन्तु उनके ऊपर आगम/पुराण लिखे जाते हैं तीर्थकर किसी भी विद्यालय में पढ़ने नहीं जाते, किसी अध्यापक को अपना गुरु नहीं बनातें वे स्वयं से स्वयं पढ़े होते हैं, इसलिए वे स्वयंभू हो जाते हैं आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि यदि गुप्तियों का पालन करने में असमर्थता हो तो कम से कम
Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com