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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 572 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
'रत्नत्रय ही मोक्ष का हेतु'
एकस्मिन् समवायादत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हिं इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमितः 221
अन्वयार्थ : हि एकस्मिन् = निश्चयकर एक वस्तु में अत्यन्तविरुद्धकार्ययोः =अत्यन्त विरोधी दो कार्यों के अपि समवायात् = भी मेल से तादृशः अपि व्यवहारः = वैसा ही व्यवहारं रूढिम् इतः = रूढि को प्राप्त हैं यथा इह = जैसे इस लोक में घृतम् दहति = घी जलाता हैं इति = इस प्रकार की कहावत हैं
सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणो मोक्षमार्गः इत्येष: मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् 222
अन्वयार्थ : इति एषः = इस प्रकार यह पूर्वकथितं मुख्योपचाररूपः= निश्चय और व्यवहाररूपं सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणो = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र लक्षणवालां मोक्षमार्गः= मोक्ष का मार्ग पुरुषम् परं पदं = आत्मा को परमात्मा का पदं प्रापयति, = प्राप्त कराता हैं
नित्यमपि निरुपलेपः स्वरुपसमवस्थितो निरुपघातः
गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्फुरति विशदतमः 223 अन्वयार्थ : नित्यमपि = सदा ही निरुपलेपः = कर्मरूपी रज के लेप से रहितं स्वरूपमवस्थितः = अपने अनन्तदर्शन ज्ञानस्वरूप में भले प्रकार ठहरा हुआं निरुपघात: =उपघातरहित और, विशदतमः परम्पुरुषः = अत्यंत निर्मल परमात्मा गगनमिव = आकाश की तरहं परम्पदे = लोकशिखर स्थित मोक्ष स्थान में स्फुरति = प्रकाशमान होता हैं मनीषियो! आचार्य भगवान् अमृतचन्द्रस्वामी ने अनुपम सूत्र दिया है कि बंध का हेतु मिथ्यात्व, असंयम,
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