Book Title: Purusharth Siddhi Upay
Author(s): Amrutchandracharya, Vishuddhsagar
Publisher: Vishuddhsagar

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Page 570
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 570 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 भगवन्! आपने जिसे छोड़ा, दुनियाँ उसे जोड़ रही हैं आपमें और दुनियाँ में इतना ही तो अंतर है कि दुनियाँ जिसे छोड़ती है, उसे आप जोड़ते हो और जिसे आप जोड़ रहे हो, उसे विश्व छोड़ बैठा हैं । भो ज्ञानी! आज ही योग का निरोध हुआ है, परम् निरोध हुआ हैं उस अनुभव को समझो, बिल्कुल शांत हो जाओं अब शरीर चलाने की भी सामर्थ्य नहीं बची, शरीर हिलाने की भी सामर्थ्य नहीं हैं अब तो वह शक्ति चाहिए कि अब मैं शरीर भी न हिलाऊँ और अपने स्वशरीर में चला जाऊँ अब मैं बोलना भी पसंद नहीं करता, मैं किसी को देखना भी पसंद नहीं करतां मन, वचन और काय की क्रिया पूर्ण समाप्त हो जाने से आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन पूर्ण रूप से समाप्त हो चुका है, उसका नाम योग का निरोध हैं शुद्धात्मतत्व की प्राप्ति का यह अंतिम पुरुषार्थ चल रहा हैं यह सहज दशा हैं जिनका चलना बंद हो गया, जिनका सोचना बंद हो गया, जिनका कहना बंद हो गया, उसी परम-योगी को निर्वाण की प्राप्ति होती हैं भगवान् अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि वीतराग-धर्म स्वीकार लों प्रभु! अंतिम लक्ष्य मेरा भी यही हो कि मेरी दृष्टि कहीं कुदृष्टि न हों भो ज्ञानी! 'कुरल-काव्य' में ऐलाचार्य महाराज ने लिखा है-संकल्प वह शक्ति होती है जो इस जीव को एक समय में सात राजू गमन करा देती हैं जितने सिद्ध हुए हैं, वे सब संकल्प से ही सिद्ध हुए हैं और जितने असिद्ध हैं, वे सब संकल्प/शक्ति के अभाव में हैं यहाँ संकल्प से तात्पर्य अपने मन की दृढ़ता अथवा व्रत की दृढ़ता से हैं ध्यान रखना, हाथों को हथकड़ियों से बाँधा जा सकता है, पैरों में बेड़ियाँ डाली जा सकती हैं, परंतु किसी भी शासन ने मन को बाँधने की रस्सी नहीं बनाई एकमात्र वीतराग-शासन ने कहा है कि तुम्हारे मन को बाँधने के लिए हाथ-पैर को बाँधने की कोई आवश्यकता नहीं हैं अज्ञानी लोग हाथ-पैर बाँधकर, अंगों को बाँध कर संयम के पालन की बात करते हैं वहीं ज्ञानी अपनी ज्ञान वैराग्य रस्सी से इंद्रिय मन को वश में करते हैं एक सज्जन रायपुर में बोले–महाराज! एक वस्त्र तो रखा जा सकता है, लंगोट तो लगाई जा सकती हैं हमने कहा-क्यों? बोले- आज के युग में कुछ अच्छा सा नहीं लगतां मैंने उनसे एक ही बात कही-आँखों से देखने वालों को अच्छा नहीं लगता, क्योंकि आपकी दृष्टि खोटी हैं इतनी बड़ी लंगोटी की अपेक्षा से आँख की पट्टी बहुत छोटी होती हैं इसलिए आपको लंगोटी नजर आती हैं जिसकी दृष्टि खोटी नहीं होती, उसे लंगोटी की कोई आवश्यकता नहीं बोले-क्या आज वर्द्धमान महावीर स्वामी होते तो ऐसे ही होते? मैंने कहा-हाँ, सच्चे वीतरागी भगवान् ऐसे ही होते हैं भो ज्ञानी! 'निर्वाण' बताने का विषय नहीं, निर्वाण तो प्राप्ति का विषय हैं आचार्य जयसेन स्वामी ने कहा-ध्यान करो, तुम भगवानरूप हो जाओगें पर ध्यान रखो, बिना संयम के ध्यान लेश- मात्र नहीं होतां यह संयम शुभास्रव नहीं कराता, संयम में शुभास्रव होता है और जब तक तुम अरिहंत बनोगे तब तक होगा अर्थात् 14वें गुणस्थान तक होगां आप तो यही मन बनाकर चलो कि, हे भगवन्! यह आस्रव भी समाप्त हो जायें Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com

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