Book Title: Purusharth Siddhi Upay
Author(s): Amrutchandracharya, Vishuddhsagar
Publisher: Vishuddhsagar

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Page 569
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 569 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 विराजमान हैं उनका क्षय करने के लिए आज से पुरुषार्थ प्रारंभ हो गयां आज के दिन तीर्थेश वर्द्धमान स्वामी ने योगों का निरोध किया था अब भगवान् जिनेन्द्र की साक्षात् देशना आज से नहीं मिलेगी, क्योंकि वे निज के शोधन मात्र में ही तल्लीन हैं अब देह में नहीं, विदेह में निवास करना हैं विदेह का ध्यान ही नहीं, विदेह में प्रवेश करना हैं भो ज्ञानी! आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने कल संकेत दिया कि इस जीव ने बंध तो किया है, परंतु रत्नत्रय से बंध नहीं होता, बंध विषय कषायों से होता हैं मोक्ष निज आत्मप्रदेश से होता है; किसी क्षेत्र / प्रदेश से नहीं यदि संसार के क्षेत्र मोक्ष दिलाते होते तो मैंने निगोद से लेकर आज तक इस क्षेत्र में भ्रमण किया है, लेकिन एक भी क्षेत्र ने मुझे मोक्ष नहीं दियां यह तीर्थ - भूमियाँ भी मोक्ष नहीं देतीं संत - भेष से भी मोक्ष नहीं होतां अहो ज्ञानी! पता नहीं तूने कितनी बार संत भेष धारण कर लिए? कोटि जन्म तूने तप किये, लेकिन लेशमात्र कर्म - निर्जरा नहीं कीं जबकि एक पर्याय की तपस्या कोटि-भव के कर्मों का क्षय एक श्वांस मात्र में करा देती है अर्थात् आत्म-ज्ञान से युक्त एक क्षण की तपस्या अनंत भवों के कर्मों का क्षय कर देती हैं भो ज्ञानी! जब युवा अवस्था थी, तब आप अपने मद में फूले थें अतः जब अपने को देखने का समय था, तब तुमने सपने जैसा खो डाला तुमने रागादिक भाव किये, अशुभ कर्म का बंध किया, किंतु जब-जब आँख खुली तब तक कर्मों को ही दोष दियां जब पौरुष था, तब तुमने पुरुष को नहीं देखा और जब पुरुष देखने का मौका आया तो पौरुष चला गयां अहो! 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' ग्रंथ जिसका दूसरा नाम है 'जिनप्रवचन रहस्य' अर्थात् भगवान् जिनेन्द्र के प्रवचनों को कहने वाला यह ग्रंथ कह रहा है कि रत्नत्रय से बंध नहीं होता, फिर भी आहारक शरीर का बंध रत्नत्रयधारी को ही होता हैं देह को प्राप्त किया, विषयों को प्राप्त किया, फिर भी इन सब के वश में जो नहीं हुआ, उसका नाम संत हैं प्राप्त होना, यह नियति है; पर प्राप्ति का उपयोग करना या नहीं करना, यह पुरुषार्थ हैं विकृति को आने ही नहीं देना और आ भी जाये तो भी विकृति में जाना ही नहीं है, यह पुरुषार्थ हैं भो ज्ञानी ! राग और विषयों की श्लेष्मा (कफ) पर जीव अनादि से चिपका है और अपने आप को छुड़ा नहीं पा रहा, पर कोई विवेकी जीव वहाँ पर चुल्लू भर पानी डाल दे तो छूट सकता हैं अहो लिप्त आत्माओ ! यदि वीतरागी जिनेन्द्र की वाणी का जरा-सा (चुल्लू भर ) पानी गिर जाये, तो मोह की श्लेष्मा छूट सकती हैं जो आज निर्वाण की तैयारी कर रहे हैं, उन्होंने वह पानी ही तो डाला हैं इसलिए, आज का नाम धन्यतेरस हैं वह त्रयोदशी धन्य हो गई, जिस दिन भगवान् वर्द्धमान स्वामी ने योगों का निरोध कियां अहो! यह धन जुटाने की त्रयोदशी नहीं है, रत्नत्रय धर्म को दृढ़ करने की त्रयोदशी हैं रत्नत्रय तो धन है, उसको स्वीकार करों परन्तु जीवों ने पुद्गल के टुकड़ों जोड़ना शुरू कर दियां हे वर्द्धमान! आज आपने सब कुछ छोड़ा है और हम आज शाम तक बाजार के लोहे को खरीदकर घर में रख लेंगें अहो ! क्या किया आपने? उत्कृष्ट यह होता कि दस बर्तन घर में थे तो एकाध आज आप छोड़ देतें Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com

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