Book Title: Purusharth Siddhi Upay
Author(s): Amrutchandracharya, Vishuddhsagar
Publisher: Vishuddhsagar

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Page 560
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 560 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 आप को जीवों की जानकारी के लिए और पैर आपको तीर्थ-वंदना के लिये मिले हैं प्रत्येक इंद्रिय आप से कह रही है कि मेरा उपयोग कर लो, लेकिन उपयोग आपने नहीं कियां जब उत्कृष्ट पद को निहारते हो तो उत्कृष्ट भाव नजर आते हैं, पर उत्कृष्ट कार्य नजर क्यों नहीं आते? मनीषियो! ध्यान रखना, यह कारिका परमात्मा के स्वरूप की चर्चा करने वाली हैं यहाँ निश्चय रत्नत्रय की चर्चा चल रही है कि आत्मा का निश्चल श्रद्धान ही सम्यक्त्व है, आत्मा को जानना ही निश्चय सम्यक ज्ञान हैं निज आत्मा में स्थिर हो जाना ही परम निश्चय चारित्र हैं गृहीलिंग, मुनिवेष यह साधन हैं अहो! अब आप भेष में भी राग मत कर बैठना कि मैं मुनि हूँ, कि मैं श्रावक हूँ ये लांछन हैं, यानी चिह्न हैं; वस्तु-धर्म नहीं हैं वस्तु-धर्म की प्राप्ति के हेतु चिह्न हैं परंतु ध्यान रखना, बिना चिह्न (लांछन) के लक्ष्य होता भी नहीं हैं लांछन को दोष मत समझ बैठनां दौलतराम जी कह रहे हैं "यो चिंत्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनंद लयों सो इंद्र, नाग, नरेन्द्र व अहमिंद्र कै नाहीं कयों" यह है परम रूप स्थिर भाव समयसार, यही है पुरुषार्थ-सिद्धि-उपायं अहो मुमुक्षु! तुम इसे कैसे बंध मानते हो? जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र से बंध मानता है, उससे अभागा इस विश्व में दूसरा कोई नहीं हैं जिनमुद्रा को जो बंध का हेतु कहे, उसे नियम से नरक का बंध हो चुका हैं एक सज्जन आए, बोले-कोई सम्यक्दृष्टि नजर नहीं आतें भैया! सम्यक्दृष्टि मिले न मिले, पर पहला मिथ्यादृष्टि तो मुझे मिल चुका हैं भो ज्ञानी आचार्य कुंदकुंदस्वामी से पूछ लेना, उन्होंने 'नियमसार' जी की गाथा नं पांच में भी यह कहा है कि सात तत्त्व पर जो श्रद्धान है, आप्त, आगम तपोधन इन पर जो श्रद्धान है, वह वीतराग व्यवहार-सम्यक्दर्शन हैं अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तों (नियमसार ५) जो ज्ञान के बल पर स्वच्छंद होकर बोलता है, उसको आचार्य कुंदकुंद देव ने 'रयणसार' जी ग्रंथ की गाथा नं. तीन में मिथ्यादृष्टि, कुदृष्टि लिखा हैं मदिसुदणाणबलेण दु सच्छंदं बोल्लदे जिणद्दिटुं जो सो होदि कुदिट्ठी ण होदि जिणमग्गलग्गरवों 3-(र.सा.) Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com

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