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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 563 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
उत्कृष्ट रूप से स्वर्ग में जाएगा तो सोलहवें स्वर्ग के आगे नहीं जातां अहो! संयम की महिमा, एक अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव महाव्रतों का निर्दोष पालन करके नौवें ग्रैवेयक तक जाता हैं यह मात्र द्रव्य - संयम की महिमा है, द्रव्य भेष की नहीं द्रव्य- मेषी ग्रैवेयक तक भी नहीं जा सकता, मात्र नरक ही जा सकता है, लेकिन द्रव्य-संयमी कभी नरक नहीं जाएगां मुनि लिंग को धारण करने वाला मिथ्यादृष्टि जीव नरक नहीं जा सकता, क्योंकि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इनका उसने त्याग किया हैं वह अनंतानुबंधी के साथ बैठा हुआ है और कषाय की मंदता है, अनाचार नहीं कर रहा है, इसीलिए वह नरक नहीं जा रहा हैं देखना ! लकड़ी को जलाकर, जिसमें नाग-नागिन जल रहे थे, ऐसी खोटी तपस्या करके भी वह ज्योतिष्क देव हुआ, क्योंकि उसके जलाने के भाव नहीं थे, अज्ञानता में उससे जल रहे थें यानि सिद्धांत समझे बिना हम कुछ भी कह लेते हैं
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भो ज्ञानी ! जिस जीव ने निर्दोष संयम का पालन किया हो और मिथ्यात्व का सेवन नहीं करता हो, (विशेष रूप से द्रव्य - मिथ्यात्व का सेवन नहीं करता), क्या वह नौवें ग्रैवेयक में नहीं जायेगा? जो जा रहा हो, वह भाव से मिथ्यादृष्टि ही होता हैं जितने ग्रैवेयक जा रहे हैं, वे सभी मिथ्यादृष्टि जा रहे हैं ऐसा भी मत कह देना बल्कि ऐसा कहना चाहिए कि मिथ्यादृष्टि जीव की जाने की सीमा ग्रैवेयक तक हैं भो मनीषियो! सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र वास्तव में बंध का हेतु नहीं हैं इसके साथ में जो प्रशस्त राग है, उससे देवआयु का आस्रव होता हैं उज्जवल उत्कृष्ट चारित्र नहीं था, इसीलिए उस जीव को स्वर्ग में जाना पड़ा और उज्वल निर्मल चारित्र होता, तो नियम से मोक्ष ही जातां जितनी जिसकी साधना होगी, उतना ऊँचा स्वर्गं जो सर्वार्थसिद्धि जा रहा है उसके मोक्ष होने की कुछ ही न्यूनता थी, पर जो भवनत्रय में चला गया उसका चारित्र सम्यक्त्व से हीन थां
भो ज्ञानी! मोक्षमार्ग पर आने के बाद आपको र्निर्दोष चारित्र होने का जितना ध्यान रखना होता है, उतना ही ध्यान निर्दोष सम्यक्दर्शन का भी रखना चाहिएं अहो! अब तो मेरे पास पिच्छी - कमण्डल, निग्रंथ भेष आ चुका है, अब तो मोक्ष सुनिश्चित हैं अहो ज्ञानी! यह सिद्धांत नहीं है, सिद्धि प्रसिद्धि दोनों ही मोक्ष की सिद्धि नहीं करा पायेंगीं मोक्षमार्ग तो निरास्रव है, सास्रव नहीं हैं अरे! जितने समय आपने ऐसा चिंतवन किया कि हम तो अमुक को सुधार कर रहेंगे, उतने क्षण आप अपने आपसे हटे हों सुनिश्चित है कि आपके परिणाम कलुषित होंगें अरे! रत्नत्रयधारी तो निर्विकार होता है पर रत्नत्रयधर्म में उदास कभी नहीं हो जानां बाह्यय द्रव्यों से उदास होना, प्रपंचों से उदास होना, देह के संस्कार से उदास हो जाना, समाज के प्रपंचों से उदास होना हैं 'तत्त्वसार' ग्रंथ में आचार्य देवसेन स्वामी कह रहे हैं- पंचपरमेष्ठी भी मोक्ष प्राप्ति में बाधक हैं अर्थात् परमेष्ठी तत्त्व से भी आप रागदृष्टि मत रखो, भक्तिदृष्टि रखों दोनों में अंतर हैं पंच परमेष्ठी की भक्ति तो सम्यकदृष्टि को होती है, जबकि पंचपरमेष्ठी का राग मिथ्यादृष्टि को ही होता है, क्योंकि वह उन्हें कुलदेवता Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
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