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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 562 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 "तीर्थंकर-प्रकृति व आहारक प्रकृति के हेतु"
सम्यक्त्वचारित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्मणो बन्धः योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोऽपि दोषायं 217
अन्वयार्थ : अपि = औरं तीर्थकराहारकर्मणः = तीर्थंकरप्रकृति और आहारकप्रकृति कां यः बन्धः = जो बन्धं सम्यक्त्वचरित्राभ्यां = सम्यक्त्व और चारित्र में समये उपदिष्टः = आगम में कहा हैं सः अपि = वह भी नयविदा = नय के ज्ञाताओं को दोषाय न = दोष के लिये नहीं हैं
सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थंकराहारबन्धकौ भवतः योगकषायौ नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् 218
अन्वयार्थ : यस्मिन् = जिसमें सम्यक्त्वचरित्रे सति = सम्यक्त्व और चारित्र के होते हुए तीर्थकराहारबन्धकौ = तीर्थंकर और आहारकप्रकृति के बन्ध करने वाले योगकषायौ भवतः =योग और कषाय होते हैं पुनः = और असति न = नहीं होने पर नहीं होते हैं अर्थात् सम्यकत्व और चारित्र के बिना बन्ध के कर्ता योग और कषाय नहीं होतें तत् = वह (सम्यक्त्व और चारित्र) अस्मिन उदासीनम् = इस बन्ध में उदासीन हैं
मनीषियो! वर्द्धमान स्वामी के शासन में हम सभी विराजते हैं आचार्य भगवान अमृतचन्द्र स्वामी ने सूत्र दिया है कि जीवन में रत्नत्रय कभी भी बंध का हेतु नहीं वह निबंध का ही हेतु हैं जो बंध हो रहा है, वह राग से है, प्रमाद से है, मिथ्यात्व से, कषाय से हैं रत्नत्रय धर्म से कभी बंध नहीं होता लेकिन इस विषय को भी अनेकांत से लगानां आचार्य उमास्वामी महाराज का "सम्यक्त्वं च," सूत्र कह रहा है कि सम्यक्त्व के माध्यम से भी देव आय का आस्रव होता है तो क्या मिथ्यादष्टि देव बनता है ? प्रथम सत्र में कह दि बालतप से भी देव बनता है, परंतु देव, देव में अंतर हैं बालतप करनेवाला भवनत्रय में जायेगा अथवा बारहवें स्वर्ग से आगे नहीं जा सकता, जबकि सम्यकदृष्टि जीव तप करके सर्वार्थसिद्धि तक जायेगां देशव्रती भी यदि
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