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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 545 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
निर्मलता बढ़ रही है, कषाय भाव कितने मंद हुए, कितने मध्यम हुए हैं, कितने जघन्य अंश हुए हैं ध्यान रखना, एक देश रत्नत्रय परंपरा या मोक्ष का हेतु तो है, लेकिन मोक्ष का साक्षात् हेतु नहीं हैं अविरत दशा में कोई जीव अपने आपको साक्षात मोक्षमार्गी मान लेता है, वह जीव वास्तव में स्वयं की वंचना कर रहा हैं कभी-कभी लगता तो है कि भगवन्, मैं दूसरों को ठगूं या न ठD , लेकिन स्वयं वंचना तो चल रही हैं अहो किसका क्या होगा? यह विषय मेरा नहीं लेकिन मेरा क्या होगा? यह विषय तो मेरा हैं अब तो धर्म ही शरण हैं देखो, समसरण में संपूर्ण प्राणियों को समान शरण हैं इस लोक में सर्वत्र रागद्वेष होता है, लेकिन अरहंत के चरणों में कोई रागद्वेष नहीं होगां यदि समवसरण में बैठकर, अरिहंत के चरणों में भी मेरे अंदर का अरि नहीं हटा, तो भो ज्ञानी! अब अरि भागने वाला नहीं इसलिए पूज्य बनाने वाला कोई है तो रत्नत्रय धर्म का पुरुषार्थ हैं यद्यपि आपने कम पुरुषार्थ नहीं किया, निंगोद से पुरुषार्थ करते-करते आज आप यहाँ तक आ गयें यहाँ आने के बाद ऊपर जाने की दृष्टि रखना, नीचे जाने की दृष्टि मत रखना अतः, मोक्ष की अभिलाषा से युक्त होकर नित्य ही उद्यमशील होना चाहिएं समय यानि आत्मा समय यानि रत्नत्रय धर्म, समय यानि आगम, समय यानि समयं जिसने समय को प्राप्त करके यदि समय पर उद्यम कर लिया, तो समयसार हो गयां बीज वही है, भूमि वही है, पर मौसम के निकलने के बाद बोना व्यर्थ हैं अर्थात रत्नत्रय धर्म तो है, मनुष्य पर्याय भी है, लेकिन आपने समय निकाल दियां अतः समय को समझने का नाम ही ज्ञान है; समय को स्वीकार लेना ही ज्ञान हैं जिसने समय को नहीं स्वीकारा, वह महा अज्ञानी हैं इस जीव ने ज्ञान तो अनन्त बार प्राप्त किया है, परंतु रत्नत्रय को अनन्त बार प्राप्त नहीं कियां यदि आपने बोधि को प्राप्त कर लिया होता तो तुम्हें पंचम काल में नहीं आना पड़तां बोधि के वेश को प्राप्त किया, पर बोधि को प्राप्त नहीं कियां इसीलिए मुनि पद का आलम्बन करके परिपूर्ण कर्त्तव्य करने योग्य मुनियों का ध्यान रखना चाहियें यहाँ तो आचार्यअमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि मुनिपद शीघ्र स्वीकार कर लो, क्योंकि यह वह मौका कब आएगा? यदि किसी को यह ज्ञान हो जाए कि मैं तो दो-तीन दिन में समाप्त हो जाऊँगा, तो इतने बड़े महल नहीं बनातां अहो! अभी तो मैं मकान बना रहा हूँ, फिर मैं इस मकान में रहूँगा, मेरे भी रहेंगे और पुराने मकान मैं भी मैं रहा हूँ, मेरे रहे थे, इसीलिए नहीं छोड़ रहा हैं यह तो मेरे दादा-परदादा का मकान है, कैसे छोंडूं? अहो! आज जिसे तू दादा कह रहा है, एक दिन वह पड़ोसी था, लड़ कर दोनों खत्म हो गयें देखो संसार की दशा, आज कह रहा है कि मेरे दादाओं की भूमि हैं यशस्तिलकचंपु महाकाव्य में उल्लेख आया है कि एक बकरा बार-बार घर की ओर दौड़ रहा है और घर का मालिक डंडा लेकर भगा रहा है, फिर भी घर में घुस गयां जब अवधिज्ञानी यति से पूछा, प्रभु! यह बकरा मुझे क्यों परेशान कर रहा है ? मुनिराज मुस्करा कर बोले, वह तुम्हारा पिता है, जिसने अंगुली पकड़ कर तुमको चलना सिखाया था आर्तध्यान से मरकर घर में ही बकरी का पुत्र हो गयां अब वह राग बार-बार उमड़ रहा है इसलिए वह बार-बार आता है और तुम बार-बार
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