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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 540 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
बीत गये, कंठ सूख रहा है, फिर भी वे निग्रंथ तपोधन किसी की ओर मलिन मुख करके यह संकेत नहीं करते कि मुझे प्यास लगी हैं "हमने किसी के आहार का निरोध किया होगा, इसलिए आज मुझे नहीं मिल रहा है." लेकिन वह किसी को दोष नहीं देंगें यह तृषा नाम का परीषह हैं शीत इतनी तीव्र है कि वृक्ष भी झुलस गये, चलने में मुश्किल है, फिर भी कभी किसी को संकेत नहीं करते हैं कि आप मुझे कम्बल वस्त्र आदि दे दो; क्योंकि यह निर्ग्रथ मुद्रा हैं उष्ण वायु या शीत लहर चल रही है, वायु के थपेड़े लग रहे हैं, बाहर की उष्णता है, पर अंदर में शुद्धात्म तत्व की शीतल समीर बह रही हैं फिर भी ध्यान रखना परीषह तभी होगा, जब खिन्नता के भाव भी नहीं आयेंगें भो ज्ञानी आत्माओ वे निग्रंथ अचल ध्यान में बैठे हैं नग्नत्व परीषह कह रहा है कि रेशमी, ऊनी, सूती आदि सम्पूर्ण वस्त्रों का उन्होंने नव कोटि से त्याग किया हैं कृत, कारित व अनुमोदना से त्याग किया हैं शरीर में कहीं फोड़ा भी हो जाये, पीड़ा भी हो जाये, मलहम पट्टी के लिए पट्टी का उपयोग नहीं करतें अर्थात रोग परीषह को सहते हैं ऐसी निर्ग्रथों की दशा हैं जिसे छोड़ दिया है, उसपर दृष्टि ही क्यों? यह नग्नत्व परीषह हैं यह नग्नत्व परीषह कह रहा है कि तुम्हारी प्रत्येक प्रवृत्ति, प्रत्येक चर्या प्रकट है, कोई छिपाकर नहीं जा सकते हैं इसीलिए ध्यान रखना, यह दिगम्बर वेष विश्वास का वेष हैं कभी किसी से कुछ माँगते नहीं, यह अयाचक वृत्ति योगियों की होती हैं माँगना तो मरण समान है, यही सद्गुरु की सीख हैं जैन मुनि कभी किसी व्यक्ति के सामने हाथ नहीं जोड़ते कि आप मुझे दे दों वे याचक कदापि नहीं हैं ध्यान रखना, वे यति किसी के द्वारे पर कुछ माँगते नहीं और न ही कभी माँगने के भाव लाते हैं अपने स्वार्थ के पीछे उनको आप रागी -द्वेषी भूमिका में मत खड़ा कर देनां किसी प्रकार से विकृत पदार्थ के मिलने पर भी द्वेष भाव नहीं लाना यह अरति परीषह हैं अलाम यानी चर्या को निकले, विधि ही नहीं मिली, फिर भी मन में खिन्नता नहीं हैं ठीक है, नरकों में तो हमको सागरों तक खाने नहीं मिला, यहाँ एक/दो दिन ही तो हुएं यह अलाभ परीषह हैं दंशमशक, मच्छर काट रहे हैं, बिच्छू काट रहे हैं, भो ज्ञानी आत्माओ ! वे विचार करते हैं कि बंध किया था श्रावक - पर्याय में और उदय में आया यति की पर्याय में यदि यह श्रावक - पर्याय उदय में आता तो संक्लेश्ता तीव्र कर लेता यति-पर्याय में उदय में आया है, तो समता से सहन कर लिया हैं ये दंशमशक परीषह कह रहा है कि मच्छर काट रहे हैं, सर्प भी रेंग रहे हैं, फिर भी किसी प्रकार से मन में विकार नहीं लाना 'आक्रोश यानी रास्ते में जा रहे थे, किसी ने खोटे शब्दों का प्रयोग कर दियां 'नग्न' ही तो कह रहा है, नंगा ही तो कह रहा हैं नंगे तो हैं ही, अतः किसी प्रकार आक्रोश उत्पन्न नहीं करनां व्याधि यानी शरीर में रोग हो गया, पीड़ा हो गई, ठीक है, आत्मा तो निरोग हैं यह पुद्गल का परिणमन है, इसको मैं सँभाल के रखूँगा भी कितना ? यह तो अपने स्वभाव में हैं गलन-सड़न, यह तो पुद्गल का धर्म हैं ठीक है, इसके माध्यम से रत्नत्रय धर्म की आराधना कर रहा हूँ मैं इसको खिला भी तो रहा हूँ जितना संयोग बनता, कर रहा हूँ, फिर भी नहीं मानता हैं तो फिर वे चैतन्य - योगी शरीर को Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
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