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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 541 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
स्वस्थ ही निहारते हैं व्याधि / दुःख में किसी प्रकार का दुःख नहीं करते 'मल परीषह स्नान नहीं करते. अस्नान नाम का मूलगुण हैं राग की वृद्धि न हो और पानी से जीव हिंसा होगी, जहाँ बहकर जायेगा वहाँ के जीव मरेंगें वे निग्रंथ योगी अपने शरीर में दुर्गंध आने पर नाक नहीं सिकोड़तें कांटे चुभ गये, फिर भी खिन्नता नहीं हैं यह चर्या नाम का परीषह हैं
भो ज्ञानी! सबसे बड़ा परीषह अज्ञान परीषह हैं अहो! गुरुदेव ने अध्ययन कराया, रोज पढ़ाया, फिर भी याद नहीं हो रहां मुनि - संघ में यतियों के बीच बैठे हैं, किसी ने कह दिया- अरे ! तू तो निरा अज्ञानी हैं ठीक तो है, ज्ञानी तो केवली भगवान हैं, मैं तो अज्ञानी ही हूँ फिर भी कहना कि मैं अपने पुरुषार्थ को नहीं छोडूंगा, परंतु खिन्नता भी नहीं लाऊँगा, क्योंकि यही तो तपस्या हैं मृदु भाव चल रहां अहो ! शास्त्रों में लिखा है कि तपस्या करने से बड़े-बड़े तंत्रों - मंत्रों की प्राप्ति हो जाती है, परन्तु मुझे तो पंद्रह वर्ष हो गये, कुछ सिद्ध नहीं हुआ अरे! ऐसे भाव नहीं लाना, यह अदर्शन नाम का परीषह हैं यदि ऐसे भाव आ गये कि "अरे! हमसे अच्छा तो ये मिथ्यादृष्टि है, इतना सब कुछ इनके पास है," तो तुम्हारे सम्यक्त्व में दोष आ गयां प्रज्ञा भी परीषह होता हैं विषय का ज्ञान है और आपसे कोई न पूछे तो आप शांत बैठ जाओ, यह बहुत बड़ा परीषह हैं मैं तना बड़ा ज्ञानी, अनेक विद्वानों को शास्त्र आदि में परास्त कर देता हूँ, फिर भी इन लोगों ने नहीं पूछां अरे! अभी यह मेरी कीमत समझे नहीं हैं, मैं बहुत बड़ा ज्ञानी हूँ ऐसा विचार मन में लाना यह प्रज्ञा नाम का परीषह नहीं ज्ञान के होने पर भी अहं भाव मन में नहीं लाना, यह प्रज्ञा नाम का परीषह हैं सत्कारपुरस्कारः- मैं संघ का ज्येष्ठ साधु हूँ फिर भी इन्होंने मुझे आगे क्यों नहीं कियां सत्कार कह रहा है, पुरस्कार कह रहा है कि मेरा
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सम्मान क्यों नहीं रखा? मुझे आचार्य बनाना चाहिए था न मुझे गणधर बनाना चाहिए था न? इत्यादि पदों की अभिलाषा रखनां परंतु, भो ज्ञानी ! यह पद मोक्ष के साधन नहीं हैं
भो ज्ञानी! सभी कालों में सभी परीषह होते हैं, परन्तु एक साथ एक समय में मात्र उन्नीस परीषह होते हैं प्रत्येक तीर्थंकर के काल में यह परीषह होते हैं तीर्थंकर जैसे महान योगी भी इन परीषहों को सहन करते हैं कंकडी - भूमि में, जहाँ स्त्री, पुरुष, नपुंसक, पशु आदि का गमनागमन ना हो, एक करवट से सोनां करवट नहीं बदल रहे और बदलेंगे तो पिच्छी से मार्जन करेंगे, यह शय्यापरीषह हैं रास्ते में किसी ने कुछ कह दिया, काँटे कंकड़ चुभ रहे हैं, फिर भी खिन्नता नहीं आईं निषद्या यानी एक आसन पर बैठे हुये हैं जंगल में विचरण कर रहे हैं, तब हाव भाव से युक्त विकारों से भरी नारियाँ निकल पड़ीं, सुन्दर स्वरुप से युक्त, आँखें विलास से भरी, उनके सामने खड़ी हुई हैं, अहो ज्ञानी! फिर भी वो ब्रह्म की ढाल को लिये बैठे हुए हैं, लेश-मात्र भी विकार - दृष्टि नहीं की जा रहीं स्त्री परीषह के सहन करने वाले महायोगी हैं बाईस परीषह सहन करना चाहियें अब आपकी जैसी सामर्थ्य हो वैसा करें क्रम से गुणस्थान बढ़ेगा तो परीषह अपने आप समाप्त हो जाते हैं अहो! मूलगुणों का पालन करियें मुनियों के परीषह सहन करना उत्तर - गुण हैं आचायों का
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