________________
पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
:
पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 512 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
भो ज्ञानी स्वाध्याय का अर्थ ग्रंथ का वाचन मात्र नहीं हैं जिस दिन स्वाध्याय हो जायेगा उस दिन आप निर्ग्रथ ही हो जाओगे, क्योंकि निज का अध्याय, निज का वाचन, निज की पृच्छना, निज का उपदेश, निज की आम्नाय का नाम स्वाध्याय हैं वास्तव में स्वाध्याय जिस दिन हो जायेगी, नियमसार व समयसार की भाषा में उस दिन तो शुद्ध-उपयोग ही होगा, यही निश्चय - स्वाध्याय हैं
भो ज्ञानी व्रत और तप में भी भेद है और कथंचित अभेद हैं जब व्रत को स्वीकार करता है, तभी तप हो जाता है तथा व्रतों को धारण करने के बाद भी तप करता है, इसलिए अंतर आ जाता हैं जब दीक्षा ली, तप स्वीकार कर लिया, तो तप- कल्याणक हो गयां अहो! जो व्रत लिया जाता है, उसमें कुछ किया नहीं जातां व्रत लिया नहीं जाता, वह तो तप करने कि प्रतिज्ञा हैं जो किया जाता है, उसका नाम तप होता हैं व्रत जो लेने जा रहे हो, वह तप लेने गये थें आप जो व्रत का पालन कर रहे हो, वह आप तपस्या कर रहे हों मोक्षमार्ग में सम्यकदृष्टि जीव के तप को ही तप कहा हैं मिथ्यादृष्टि जीव की तपस्या को तपस्या स्वीकार नहीं किया हैं वह बाल-तप हैं उसे बाल-तप ही कहना, कुतप नहीं कहनां क्योंकि कुलिंग में तप धारण करे तो कुतप है और मिथ्यात्व के साथ सम्यक् - तप करे तो बालतप है, अन्यथा ग्रैवेयक नहीं जा पायेगां
भो ज्ञानी! आचार्य भगवान् कह रहे हैं कि यतियों के षट् आवश्यक कर्त्तव्य होते हैं (1) समता, सामायिक, साम्यभाव यही श्रमण का प्रतीक हैं श्रमण की पहचान नग्न भेष से नहीं, समता भाव से हैं यदि नग्न भेष से श्रमण की पहचान करते तो लोक में जितने तियंच हैं वे सभी श्रमण हो जातें (2) चौबीस तीर्थंकर भगवंतों का एक साथ वंदन करना 'स्तव' कहलाता हैं यदि कोई व्यक्ति पढ़ा-लिखा नहीं हो तो कैसे मूलगुणों का पालन करेगा, कैसे आवश्यकों का पालन करेगा? अरे! तिर्यंच भी बारह व्रतों का पालन करता है, जबकि वह मनुष्य नहीं हैं अरे भाई! घबराना मत, तुमसे हाथ जोड़ते तो बनता है? (3) भगवान् महावीर स्वामी की जय हों हे प्रभु! मेरे कर्मों का क्षय हो, दुखों का क्षय हो, बोधि की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हों हे प्रभु जिनेन्द्र! आपके गुणों की सम्पत्ति मुझे प्राप्त हों यह 'वंदना' हैं जैसे चौबीस भगवंतों ने चतुष्टय को प्राप्त किया है, वैसे चतुष्टय की प्राप्ति मुझे हों आप चौबीसों भगवान् को मेरा त्रिकाल नमोस्तु, यह 'स्तवन' हो गयां (4) मेरे दोष मिथ्या हों, इसका नाम प्रतिक्रमण हैं हे नाथ! धिक्कार हो मुझ पापी को कि ऐसे निर्मल भेष को भी प्राप्त करके मेरे भाव बिगड़ गयें हे भगवन्! मेरे दुष्ट कर्म मिथ्या हो जाएँ प्रतिक्रमण में दोषों को कहने से वे मिथ्या नहीं हुए, पर कहने के भाव जो तेरे मन में उत्पन्न हुए हैं, उन परिणामों की विशुद्धि से मिथ्या हुए हैं परंतु जिसके मन में कहने के भाव नहीं आ रहे हैं, तो उसका तो प्रतिक्रमण होता ही नहीं, वह भाव प्रतिक्रमण नहीं हैं अतः, द्रव्य प्रतिक्रमण तो करते ही रहना, कम-से-कम अशुभ से तो बचे रहोगें लेकिन वास्तविक
Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com
For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com