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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 385 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
सकतें उस क्षेत्र के यक्ष ने सिंहासन बना कर उस चाण्डाल को उस पर बैठा दियां यह क्या हो गया ? अहिंसा धर्म की जय हों जिन शासन जयवंत हों इसलिये व्यर्थ में कर्म का बंध मत कर लेना हम एक बार तुम्हारा राग मान लेंगे, पर द्वेष तो मत करों ऐसा कहो कि मुझे ऐसा मिल जाए, पर ऐसा तो मत कहो कि इसका छूट जाएं अपने लाभ की बात करो, पर दूसरे के अलाभ की बात करना समझ में नहीं आतीं रावण के पास अठारह अक्षौहणी सेना थी और दशरथ के बेटे राम व लक्ष्मण मात्र दो ही गये थे भो चैतन्य आत्माओ! दूज का चाँद ही पूर्णिमा का चाँद बन गयां इसलिये आज से ध्यान रखो, व्यर्थ का सोचना बंद कर देना, क्योंकि आपके सोचने से कुछ नहीं होगां
भो ज्ञानी! चार भैया एक साथ रहते थे बड़े की पत्नी कहती है कि तीन तो कुछ करते नहीं हैं, आप ज्येष्ठ हो, कब तक इनका पोषण करोगे? इनको छोड़ दों वह भूल गई थी कि प्रत्येक जीव अपने भाग्य पर जीते हैं परन्तु आप कैसे पागल हो गये कि जिस आँगन में एक साथ खेलते थे, जिस माँ की गोद में तुम क्रीड़ा करते थे, उस माँ की गोद व आँगन और भाइयों को छोड़कर तुम अकेले चले गये? बलभद्र और नारायण एक साथ रहते हैं नारायण की सोलह हजार रानियाँ, और बलभद्र की आठ हजार रानियाँ उनके कितने पुत्र होंगे? इसलिये यह भावना छोड़ दो कि परिवार बड़ा हो गया है, इसलिये अलग हो जाते हैं यह कहो कि, भगवन्! मेरी परिणति खराब हो जाती है, इसलिए मैं अलग हो जाता हूँ जहाँ परिणति खराब हो जाती है, वहाँ तुम इकलौती माँ को भी अलग कमरा दे देते हों यहाँ ऐसे भी बेटे होंगे, जो वर्षों से माँ से मुँह नहीं बोले होंगे लेकिन, माँ! दुःखी नहीं होना; क्योंकि यह भी एक कर्म निर्जरा की साधना हैं आपने पूर्व में ऐसा ही किया होगा
____ भो ज्ञानी! इतिहास कह रहा है कि वैभव ने माँ-बेटों में, परिवारों में सदैव विवाद खड़ा किया हैं वैभव ही आपको अलग-अलग करा रहा हैं अहो! मन के चिंतन के बाद आचार्य महाराज कह रहे हैं कि हिंसा के वचन भी मत बोलो, आरंभ-समारंभ के उपदेश भी मत करो; प्रमाद चर्या भी मत करों प्रमाद चर्या से व्यर्थ ही कर्म का आस्रव होता हैं भो ज्ञानी ! कुछ पाप तो ऐसे करते हो जिसे आप पाप ही नहीं मानतें चटाई पर आराम से बैठ गये, वह अनर्थदण्ड हैं जिसने इसको समझ लिया, उसे मुनि बनने में, समितियों के पालन करने में दिक्कत नहीं होगी, मात्र वस्त्र उतारना है, इसलिये इसका नाम शिक्षाव्रत हैं जब तक आप श्रावक के व्रतों का पालन निर्दोष नहीं कर पा रहे हो, तब तक आप निर्मल साधना भी नहीं कर पाओगें जरा सा गुस्सा आया, भड़भड़ा पड़े, पता नहीं किस को क्या बोल पड़े ? यह अनर्थदण्ड हो रहा हैं धर्म-धर्मात्मा पर चिल्लाए हो, विसंवाद हो गया, यह चोरी हो गईं यह करणानुयोग हैं भो ज्ञानी! परिणामों में निर्मलता नहीं है, तो चर्या निर्मल कैसे होगी? वृक्ष पर फल लगा हुआ है, पीला दिख रहा है अर्थात् फल पक चुका हैं आप कह रहे हैं कि मधुर है, जबकि आपने रसना पर नहीं रखा, आँख से मधुर है, सुवासित है, जबकि अभी तो ऊपर लगा हैं
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