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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 462 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
भो ज्ञानी ! ध्यान रखना, यह संसार बड़ा स्वार्थी हैं जब तक तुम घर में हो, तब तक पूरी सम्पत्ति उनके नाम भी मत कर देना, अपनी जीवन की सुरक्षा के लिए कुछ लेकर चलना; क्योंकि पड़ौसी भीख डाल सकता है, लेकिन बेटे भीख भी नहीं देंगें पूरी व्यवस्था समझना, अन्यथा तुम समाधि नहीं कर पाओगे और संक्लेशता में जीओगें कोई पानी देने को नहीं आयेगा तुम पानी-पानी चिल्लाओगें आज सब अपने-अपने दिखते हैं, किंतु जब शरीर शिथिल होता है, मल फूटता है, तब कौन देखेगा? अहो पुत्रो ! ध्यान रखना, जब तुम्हारे मल को इन माता-पिता ने उठा कर फेंका था, आज तुमने माता-पिता के मल के लिए नौकर लगा दिया हैं सोचो, तुम्हें जन्म इसलिए नहीं दिया था कि तुम माता-पिता को अस्पताल में फेंक आनां तुम्हें जन्म इसलिए दिया था कि तुम अंतिम समय में भी शरीर को सम्हाल लेनां पिता को भी चाहिए कि बेटे ही नहीं और भी कोई गरीब तुम्हारे वंश का है, उसको भी बराबर अंश दे देनां यही समदत्ती हैं समाधि के पूर्व अपने जीते जी सब को दे देना चाहिएं दीन-दुःखियों को करुणा दान पात्रों-सुपात्रों को और तीर्थ क्षेत्रों में भी दान देना चाहिए
भो ज्ञानी! जब तक तुम्हारी आँखें काम कर रही हैं, तब तक जिनवाणी पढ़ लो, पंच परमेष्ठी के दर्शन कर लो अंतिम समय में पैर काम करें तो तुम तीर्थों कि वंदना कर लों क्योंकि 'सर्वार्थसिद्धि' ग्रंथ में स्पष्ट लिखा है कि जिनबिम्ब की वंदना सम्यक्त्व की उत्पत्ति का हेतु हैं तीर्थ वंदना, स्वाध्याय एवं ज्ञान का फल है संयम, और संयम का फल है समाधिं बेटों को सब सौंपने के बाद अब पिता समझाता है- पुत्रो ! जैसे हमने समाज को भाया, देश को चलाया, वंश को चलाया है, मेरे बेटो! तुम उसकी लाज रखनां निग्रंथों को दान देते रहना, गरीबों पर करुणा रखनां संबंधों को संबंध मानकर चलना, परंतु अपने स्वभाव को मत खो देनां पिता ने एक-एक को बुला-बुलाकर और यहा तक कि नाती तक के भी पैर पड़ लियें क्योंकि पिता कहता है कि मेरे संबंध इस पर्याय के हैं, परंतु द्रव्य तू भी अनादि है और मैं भी अनादि हूँ मेरी पर्याय से तुम्हारे द्रव्य को जरा सा भी कष्ट पहुँचा हो, तो क्षमा कर देनां "खम्मानि सव्व जीवाणां सव्वे जीवा खमंतु मे मैत्री में सर्व भूतेषू बैरं मज्जं ण केणवी " - सूत्र गूंजता हैं ऐसा सोच करके वह श्रावक सभी धन व धरती का विभाग करके, संपूर्ण द्रव्य का विर्सजन करके, योग्य मुनिसंघ में प्रवेश कर लेता हैं यदि सामर्थ्य होती है और तीव्र भावना है तो उसको दिगम्बरी दीक्षा दे दी जाती हैं यदि शरीर में कोई ऐसा दोष है और दीक्षा का पात्र नहीं है, तो अंतिम समय में एकांत स्थान में उनको दीक्षा दी जा सकती हैं लज्जाशील हो, नगर का सेठ हो, राज्य पुरुष हो, ऐसे लोगों को शीघ्र दीक्षा नहीं दी जातीं क्योंकि जब तक सर्व सम्मति नहीं होगी तो उनके कारण संघ पर उपसर्ग आ सकता हैं यदि राज्य का कर्मचारी है तो जब तक शासन से पूर्ण निवृत्त होकर नहीं आता, उसे दीक्षा नहीं दी जाती है, क्योंकि शासन का उपसर्ग संघ पर हो सकता हैं
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