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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 469 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
नहीं थें पीड़ा बंध नहीं है, पीड़ित होना बन्ध हैं निज स्वरूप में लीन हो जाने का नाम ही समाधि हैं जो समाधि नहीं कर पाता, वह 'आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी' की दृष्टि में हिंसक हैं उसने अपने चेतनरूपी धर्म का घात किया हैं यह स्व–पर की हिंसा हैं अब तुम्हें निज की ओर दृष्टिपात करना हैं मरते समय मृत्यु बोध किसे होता है? सम्यकदृष्टि, विशुद्धपरिणामी जीव को अपनी मृत्यु का ज्ञान हो जाता हैं जिसने जीवन को जीते-जीते जिया है, वह मृत्यु का बोध कर लेता हैं जिसने जीवन को मरते-मरते जिया है, वह मृत्यु के समय मर जाता हैं इसलिए जो बारह वर्ष की सल्लेखना है, वह जीवन की कला भी हैं 'अमृतचन्द्र स्वामी' सूत्र में कह रहे हैं कि अहिंसक बनों तुमने हिंसक होकर जीवन भर असंयम किया हैं जिनवाणी को जीवन भर सुना है, धर्मआयतनों की सेवा की हैं पर कषाय की है, सेवा नहीं हमने आत्मा की सेवा की होती, तो समाधि हो जाती किन्तु हमने पर्याय की पहचान विश्व में कराई थी, इसलिए तो हमारी समाधि नहीं हो पाईं चार व्यक्ति एकसाथ पूजा कर रहे है और इतनी जोर से बोल रहे हैं कि दूसरे की आवाज दब रही हैं वह पाठ को भूल रहा हैं यह असमाधि का कारण हैं कोई त्यागी-व्रती आपके यहाँ हैं, परन्तु आप उनकी अविनय कर रहे हो, तो यह असमाधि का कारण हैं
सूत्र ध्यान में ध्यान रखना, हे नाथ! मैं दोष बोलने के लिये मौन हो जाऊँ दोष सुनने के लिए बहरा हो जाऊँ दोष देखने के लिए लंगड़ा हो जाऊँ इतना तुमने सीख लिया तो समाधि निश्चित हैं धर्म सुनने के लिए बहरे हो गये, पंचपरमेष्ठी को देखने के लिए अन्धे हो गये और तीर्थ-वंदना के लिए तुम लंगड़े हो गये, तो समझ लो तुम्हारी असमाधि सुनिश्चित हैं बिना भावों की निर्मलता के झुकना होता ही नहीं बिना झुके सल्लेखना होती नहीं हैं जिन-जिन को समाधि करना है, उन्हें ज्यादा ग्रंथ नहीं पढ़ना हैं आचार्य पूज्यपाद स्वामी समाधितंत्र में लिख रहे हैं
शरीर कंचुकेनात्मा, संवृत-ज्ञान-विग्रहः नात्मानं बुध्यते तस्माद, भ्रमत्यतिचिरं भवें 68
हे योगीन्द्र! केंचुली हटाने से सर्प निर्विष नहीं हो जातां वस्त्र उतार देने मात्र से कोई वीतरागी नहीं होतां जब तक अहंकार/ममकार रूप विष की थैली नहीं निकलेगी, तब तक काम नहीं चलेगां सल्लेखना कषायों को कुश करने से होती हैं जिस जीव ने किसी जीव पर कषाय-भाव किया है, वह दूसरे का घात कर सके, न कर सके, लेकिन स्वयं का घात कर लिया हैं इसलिए वह हिंसक है, कसाई हैं किन्तु जो समाधि के काल में कषायों को कृश कर रहा है, वह अहिंसक हैं जो जीव कषाय-भाव से युक्त है, चाहे द्वेष जन्य हो
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