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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 487 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
होता है और ज्ञान-ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से होता हैं आज लोग विद्वावानों पर अश्रद्धान करने लगे हैं और विद्वान चारित्रवानों पर अश्रद्धान करने लगे हैं, लेकिन वास्तव में दोनों एक-दूसरे को समझ नहीं पा रहे हैं अहो! एक-दूसरे को मत समझो, आप जिनवाणी मात्र को समझ लों जिससे आत्मा का उपकार हो, उसे उपकरण कहते हैं हिंसा होगी तो कर्म-बंध होगा, अहिंसा होगी तो कर्मनिर्जरा होगी यह पिच्छी अहिंसा का उपकरण है, इसलिए यह आपका उपकारी द्रव्य हैं प्रत्येक तत्त्व में जितने गहरे में जाओगे उतना समझ में आएगां आपमें तो ज्ञान होने के बाद भी संयम के भाव नहीं आते और आ भी जायें तो संयम धारण नहीं कर पातें यदि संयम धारण कर भी ले, तो पालन नहीं कर पातें पालन भी हो जाएं लेकिन शुद्ध-भाव नहीं होतें इसलिए श्रावक की भी यह सब व्यवस्थाएँ छठवें गुणस्थान तक ही हैं, इसके बाद कोई राग नही हैं राग तो चलता है 10वें गुणस्थान तक, लेकिन वह व्याख्यान का विषय नहीं, वह सूक्ष्म है, वह अंतरजल्प हैं यह है आपकी ज्ञान की महिमां
भो ज्ञानी! आप लोकोपचार को समझ नहीं पाए, अतः जिनवाणी की धारा को समझनां आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने “अध्यात्म अमृतकलश" में कहा है कि स्वरूपाचरण को समझ नहीं पाया और संयमाचरण में खो गयां अहो प्रमादी! तू क्या कर रहा है? संयमी-जीव संयम की साधना में लीन हैं सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद स्वामी कह रहे हैं कि विशुद्धि से क्षयोपशम की वृद्धि होती है और बिना संयम के विशुद्धि नहीं बढ़ती हैं आल्हाद/ प्रसाद विशुद्धि हैं वस्तु का मिल जाना, पूजन कर लेना, पाठ कर लेना, इसका नाम विशुद्धि मत कह देनां यह विशुद्धि व्यवहार-दृष्टि से हैं इन स्थानों पर आकर जो आल्हाद तुम्हारे अंदर उत्पन्न होता है उसका नाम यथार्थ विशुद्धि हैं प्रतिभा के देखने के बाद प्रतिभावान पर जो तुम्हारी श्रद्धा उमड़ती है, उसका नाम विशुद्धि हैं अहो! उपयोग के विषय को पदार्थों से नहीं नापनां यदि जिनवाणी को सुन रहे हो तो इससे शुभ काय-योग तो बन जाएगा, लेकिन यदि परिणामों में निर्मलता नहीं आ रही है तो उपयोग शुभ बनने वाला नहीं हैं विशुद्धि से क्षयोपशम बढ़ता हैं इसलिए घबराओ नहीं, साधना करते जाओं याद हो या न हो, लेकिन आप पढ़ते जाओं ये संस्कार तुम्हारे बन जाएँगें शास्त्र ज्ञान की बात मत करो, आप तो शुद्ध ज्ञान की बात करों ये शास्त्र ज्ञानी यहीं बैठे रहेंगे, तुम केवली-भगवान बन जाओगें शिवभूति महाराज का क्या हुआ था ? "तुषमास भिन्न" जपकर वे अंतर्मुहूर्त में कैवल्य को प्राप्त हो गए थे ये श्रद्धा की महिमा थी, शास्त्र-ज्ञान की नहीं थीं उनको तो "णमोकार मंत्र" याद नहीं था यह विशुद्धि की भावना हैं इसलिए, यदि संयमी के पास शास्त्र-ज्ञान नहीं है, तो शास्त्र-ज्ञान से संयम की पहचान नहीं करना, क्योंकि संयमहीन केवली बन जाएँ, यह कभी संभव नहीं होगां
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