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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 486 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 -2010:002 कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखर्यम् असमीक्षिताधिकरणं तृतीयशीलस्य पंचेतिं 190
अन्वयार्थ : कन्दर्पः कौत्कुच्यं = काम के वचन कहना, भाडरूप अयुक्त कायचेष्टां भोगानर्थक्यम् = भोगोपभोग के पदार्थों का अनर्थक्यं मौखयं च = मुखरता या वाचालता और असमीक्षिताधिकरणं = बिना विचारे कार्य का करना इति = इस प्रकारं तृतीयशीलस्य = तीसरे शील (अर्थात् अनर्थदंडविरति व्रत के) अपि पंच = भी पाँच (अतिचार) हैं
अंतिम तीर्थेश वर्द्धमान स्वामी जी की पावन पीयूष देशना हम सभी सुन रहे हैं आचार्य भगवन अमृतचन्द्र स्वामी ने अभूतपूर्व सूत्र दिये हैं कि चित्त की चंचलता ही भगवती-अवस्था की विघातक हैं चित्त की निर्मलता ही भगवत्ता की जनक हैं चारित्र में अतिचार नहीं आते हैं, चित्त में अतिचार आते हैं और चित्त के अतिचार चारित्र से दूर कर देते हैं संसार का कोई भी प्राणी असंयम को श्रेष्ठ नहीं मानता, क्योंकि संसार को बढ़ाने वाला असंयम हैं अतिचार इसलिए लगा, क्योंकि सावधानी की कमी थी, सजगता नहीं थीं अहो ज्ञानियो! जिस जहाज में जड़-रत्न रखे हों, उस जहाज का चालक कितनी सावधानी रखता है? अहो रत्नत्रयधारी नाविक! श्रावकों के बीच रत्नों को ले जा रहा है, लेकिन दृष्टि यह रखना कि कहीं मेरे अंतरंग में तूफान तो नहीं आ रहा है, अन्यथा विभाव परिणति का तूफान रत्नत्रय नौका को नीचे पलट देगां अहो! जब-जब जीव का विघात हुआ है, बस एक क्षण की असावधानी से हुआ हैं इसमें ज्ञान का दोष तो नहीं थां ज्ञान जानकारी देता है कि श्रद्धान कैसा था? जहाँ विश्वास होता है, वहीं गमन होता हैं देखो, नमक के खुले बोरे पर चीटियाँ घूमते नहीं मिलती, किन्तु शक्कर के बंद डिब्बे के अंदर चीटियाँ घूमती नजर आती हैं क्योंकि जहाँ राग था, जहाँ विश्वास था, वहाँ द्वार भी मिल जाता हैं जब ज्ञानी को संयम के प्रति विश्वास हो जाता है तो चारित्र का द्वार खुल जाता है और अज्ञानी को संयम पर श्रद्धान नहीं होता है तो वह असंयम रूप ही रहता है, संयम उसे झलकता नहीं हैं इसीलिए ज्ञान की संज्ञा दीपक है अर्थात् वह स्वपर प्रकाशक हैं
भो ज्ञानी! जिनवाणी माँ कहती है कि मुझे जानने से ज्ञान नहीं होगा, क्योंकि ज्ञान जिनवाणी का धर्म नहीं है, ज्ञान तो आत्मा का धर्म हैं यदि शास्त्रों से ज्ञान होता तो सभी जीव ज्ञानी होतें अरे! ज्ञान तो बुद्धि का विषय है, चारित्र संयम का विषय है और दर्शन श्रद्धा का विषय हैं ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम भिन्न तत्त्व हैं संयम चारित्र मोहनीय-कर्मो के क्षयोपशम से होता है, और श्रद्धान-दर्शन मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से
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