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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 500 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002
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" तप विधान"
चारित्रान्तर्भावात् तपोपि मोक्षाङ्गमागमे गदितं अनिगूहितनिजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तैः 197
अन्वयार्थ :
आगमे जैन-आगम में चारित्रन्तर्भावात् = चारित्र के अंतर्वर्ती होने से तपः अपि = तप भीं मोक्षांगम् मोक्ष का अंगं गदितम् = कहा गया हैं इसलिये अनिगूहितनिजवीर्यैः = अपने पराक्रम को नहीं छिपाने वाले तथां समाहितस्वान्तैः = सावधान चित्तवाले पुरुषों के द्वारां तदपि निषेव्यं = वह तप भी सेवन करने योग्य हैं
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भगवन् अमृतचंद्र स्वामी ने अनुपम - अलौकिक सूत्र प्रदान करके इस संसार में आत्मार्थियों का परम कल्याण किया हैं अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि 'जीवन में वैभव का मिल जाना, तन का मिल जाना तो सहज है, परन्तु तन और धन के मिलने के उपरान्त मन का परिणमन संयमित होना बहुत दुर्लभ हैं' विभूति का मिलना तो मिथ्या दृष्टि को भी होता है, सुन्दर शरीर तो बहुत जीवों का है, पर पूछ लेना मखमली इन्द्रगोप कीड़े से कि तूने ऐसे कौन से कर्म का आस्रव किया जिससे इतना सुन्दर शरीर तुझको मिला वह कह देगा - मैं वही भोगी / रागी हूँ जो वस्त्रों से बाहर नहीं उतरा और वस्त्रों से उतरा तो वासना में लिपट कर इतना तन्मय हो गया कि वैभव को ही सर्वस्य मान लिया; आत्मानंद को भूल गया; परमानंद को भूल गयां 'चारित्रं खलु धम्मो' सूत्र को तो शून्य कर दिया, चारित्र पर मेरी दृष्टि ही नहीं पड़ीं उस समय मैंने स्पर्शन इन्द्रिय को ढँकने के पीछे, शरीर को ढकने के पीछे पता नहीं कितने कोशों की कोशिकाओं का घात कर दिया, उसका परिणाम मुझे प्राप्त हुआ हैं।
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