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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 465 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
ध्यान रखना कि जब भी वसतिका में प्रवेश करें तो निःसही-निःसही का उपयोग किए बिना क्षपक की वसतिका में प्रवेश न करें, क्योंकि उसकी साधना से प्रभावित होकर बहुत सारे व्यंतर देवी-देवता दर्शन को आते हैं उनसे आप अनुमति लेकर पूर्ण शुद्धि से जानां जैसे जिनालय में प्रवेश करते समय ध्यान रखते हो, वैसा ही ध्यान रखना
मनीषियो! अब अंतिम दशा की चर्चा कर रहे हैं योगीराज सल्लेखना में रत हैं, निर्यापकाचार्य उन क्षपक के सामने विविध प्रकार का भोजन दिखाते हैं कि जो चाहिए है वह ले लों उत्तर देते हैं, स्वामिन्! मैंने जीवन में बहुत खाया हैं वे श्रेष्ठ/उत्तम साधक हैं, जिन्होंने देखते ही निषेध कर दियां पुनः पकवान खिलायेंगे नहीं, मात्र दिखायेंगें क्षपकराज बोले-नहीं, स्वामिन्! बहुत खाया हैं अब पुद्गल में खाने की ताकत नहीं सल्लेखना में हैं कदाचित नहीं रहा होश, रात्रि के 12 बजे भोजन माँग लियां तब अज्ञानी तो हल्ला कर डालेंगे कि समाधि बिगड़ गई रात्रि के 12 बजे भोजन माँगा तो उन्हें समझाते हैं-महाराज! आप मुनिराज हैं, अभी रात्रि के 12 बजे चर्या नहीं होती अहो! 'तस्य मिच्छामि दुक्कडं', चलो त्याग कर दों इस प्रकार सम्हाल लिया, क्योंकि उनको तो पता ही नहीं थां अब कहीं गृद्धता या कषाय ने काम किया और असमय में पुनः भोजन माँग लिया, तो इस अवसर पर स्वयं आचार्य महाराज आएंगे संबोधन देंगे, हे जीव! तूने कितना खाया है, नहीं मानोगे? लाओ भैयां सामने लाकर रख दियां खिलाऊँ क्या? उनके हाथ पर रख दिया और हाथ पकड़ लियां लो, ले जाओ मुख की ओरं फिर हाथ पकड़ लियां सुनो! तुमने जीवन भर साधना की है और आज पुद्गल के टुकड़ों के पीछे क्या तुम संयम को खो दोगे ? नहीं छोड़ दिया खानां स्वामिन! प्रायश्चित्त दों आचार्य तुरंत प्रायश्चित्त करा रहे हैं ठीक है, स्थिर हो जाओं कदाचित्, आहार की बेला पर माँग रहे थे, तो दे दिया, मुख में भी रखवा दिया, खा लों अब खाने की ताकत तो थी नहीं, जीभ भी चल रही हैं फिर भी बोले-नहीं,नहीं और खाना पड़ेगा, पर चेहरा हिला रहे हैं अब तो नहीं चाहियें ठीक है, निकाल दों मुख-शुद्धि कर लो, अब प्रत्याख्यान कर लों अब भोजन नहीं चाहियें तो चारों प्रकार के आहार पानी का त्याग कर दों
हो रहा हैं कोई बात नहीं, सहनशीलता लाओं पुनः कराहने पर आचार्य भगवान कहते हैं-हे क्षपकराज! तुम मृत्यु से मत भागनां सुकुमाल महाराज, सुकौशल महाराज और गजकुमार महाराज को तो देखों तुम्हारे जीवन में कौन सा कष्ट हैं अहो! इस पर्याय में तुम उलझे हों पर्याय से दृष्टि को हटाओं
क्षपक 'समयसार' में जी रहा हैं जब तक समयसार में जीना नहीं सीखोगे, तब तक सल्लेखना संभव नहीं हैं अंतिम दशा और सावधानी के विषय में समझों शरीर की शक्तियाँ क्षीण हो गई और हाथ का हिलना बंद हो गया, ऊपर दृष्टि हो गईं बस, आचार्य समझ लेते हैं कि नेत्रों के पलक का उठना भी समाप्त हो गयां पूछते हैं, जाग्रत हो? अब तक जो छाछ चल रहा था, वह भी समाप्त हो गयां अब उष्ण जल भी छूट गयां अब तो जिनवाणी का "ऊँ नमः सिद्धेभ्यः" चल रहा है और देखतेदेखते हंस परमहंस-अवस्था को प्राप्त हो
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