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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 399 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
और जहाँ विकल्प खो गया और आप बैठ गये शांत होकर, समझ लेना आपने साधना कर लीं जिस समय सीता का जीव प्रतीन्द्र हुआ, उसके मन में एक विकल्प आ गया, अरे! बलभद्र राम उत्कृष्ट साधना कर लेंगे तो वह निर्वाण को प्राप्त कर लेंगे यदि मैं इनकी साधना को भंग कर दूंगा तो यह संसार में रहेंगे, जिससे हमारे फिर से संबंध स्थापित हो जाएँगें देखना मोह की दशा, सीता का रूप धारण करके सामने खड़ा हो जाता है, स्वामी! आप क्षमा करों मैंनें आपकी अवहेलना की, अज्ञानतावश मैंने आपकी बात को स्वीकार नहीं कियां अब आप चलो महलों की ओर, मैं आपकी महादेवी सीता हूँ ध्यान रखना जीवन में, हिमालय हिल सकता है, परंतु निग्रंथ मन कभी सग्रंथ नहीं होतां अग्नि शीतल हो जाए, लेकिन संत के हृदय में वासना और कषायों की ज्वाला नहीं आती है, यही भाव-लिंग हैं
भो ज्ञानी! गृहस्थी में रहकर यदि साधु की याद आ जाए तो तू महान हैं जीवन में यदि कुछ पाना चाहते हो तो गृहस्थ बनकर साधु को याद करते रहनां और कहीं गृहस्थी में तुम गृहस्थी ही को याद करते रहे, तो गृहीत-मिथ्यात्व से भी नहीं छूट पाओगें देह से धर्मात्मा हो भी गये, तो भी कोई सार नहीं हैं इसे आगम स्वीकार नहीं करता है कि परिणति धर्मात्मा की हो और देह से उसके धर्म न झलके, यह संभव नहीं हैं जिसमें निश्चय-धर्म है, नियम से उसमें व्यवहार धर्म होगां ऐसा कभी नहीं हो सकता है कि अंतरंग में धर्म हो, और बाहर में धर्म न हों भो ज्ञानी! प्रकृति भी आपसे कह रही है कि बिना द्रव्य-दृष्टि के पर्याय-दृष्टि नहीं और बिना पर्याय-दृष्टि के द्रव्य-दृष्टि नहीं द्रव्य कहता है कि मैं द्रव्य-पर्याय से हूँ , तो गुण भी मेरे अंदर विद्यमान हैं पर्याय को पर्याय मानना मिथ्यात्व नहीं हैं द्रव्य को द्रव्य मानना मिथ्यात्व नहीं हैं द्रव्य को गुण व पर्याय से युक्त मानना मिथ्यात्व नहीं हैं पर्याय के भोगों में लीन होकर अपने को प्रभु मानना, यह मिथ्यात्व हैं कुन्दकुन्द आचार्य भगवान् कह रहे हैं-"पज्जयमूढा परसमया" जो पर्याय को ही आत्मा का लक्षण मान रहा है, वह मिथ्यात्व में जी रहा हैं अमृतचन्द्र स्वामी कह चुके हैं "द्रव्यगुणपर्ययसंवेता" उमास्वामी महाराज से पूछ लो द्रव्य की परिभाषा-गुणपर्ययवद् द्रव्यं अतः, जहाँ सामायिक का अभाव है, वहाँ मूढ़ता है; क्योंकि पूरी पर्याय अपने शरीर के लिए सौंप दी हैं पूरी पर्याय के क्षण आपने भोगों में लगा दिये हैं, उसी का नाम पर्याय-मूढ़ता
भो ज्ञानी! राग को जानना बंध नहीं हैं राग को जानने से बंध नहीं होता, द्वेष को जानने से बंध नहीं होता, रागी-द्वेषी होना बंध हैं अहो ! भोगी के भोग बंध नहीं हैं, लेकिन भोगों में लीन हो जाना बंध हैं भोग तो सम्पूर्ण विश्व में हैं जो भाव जहाँ बैठे, वो भी भोग हैं एक जीव यहाँ निर्भोग में बैठा है और दूसरा भोग में बैठा है, क्योंकि एक सामायिक कर रहा है यहाँ बैठकर, और दूसरा यहाँ बैठकर अधिकार देख रहा है कि यह तो मेरा स्थान हैं वह मंदिर में बैठकर बंध कर रहा है और एक यहीं बैठकर सामायिक कर रहा हैं इसलिए ध्यान रखना, धर्म-स्थान धर्मात्मा के लिए होता है, रागी-द्वेषी के लिए नहीं अन्यथा सम्मेदशिखर तीर्थ से सभी
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