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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 436 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
को छोड़ दिया तो संसार-मार्ग ही हैं कुछ बालक प्रवचन के समय ऊपर ऊधम कर रहे थे, मैं सोच रहा था कि इतने सारे लोग यहाँ बैठे हैं, किन्तु किसी को करुणा नहीं आ रहीं वे बालक अज्ञानता में ज्ञानावरणीय कर्म का बंध कर रहे हैं और सब देख रहे हैं, जबकि करुणा आना चाहिएं यदि तुम्हारे सामने कोई जीव पाप में लिप्त हो रहा है, यथार्थ से दूर हट रहा है, ऐसा नहीं कि तुम उन्मार्ग का पोषण करो, तुम्हारा कर्तव्य यह बनता है, कहते-भैया! यह मार्ग उचित नहीं हैं क्योंकि जब हल्ला वे कर रहे थे तब उन्हें ज्ञानावरणीय कर्म का आस्रव हो रहा थां आप तो यह सोचकर रह जाते हो कि जिसकी जो होनहार होना हो वह होगी यह तो एकांत/विपरीत मिथ्यात्व हैं जब कोई न सम्हले, फिर कहना, भैया! ऐसी होनहार हैं ऐसा पहले कहकर मत बैठ जाना, अन्यथा मिथ्यादृष्टि, भाग्यवादी, ईश्वरवादी और आपमें कोई अंतर नहीं होगां
भो मनीषी! कोई चंदा माँगने आ जाए तो तुरंत जेब में हाथ जाता है, क्योंकि मिथ्यात्व को देने में कोई पाप नहीं लगता है, उसमें हम अध्यक्ष बन जायेंगे, सन्मान मिल जायेगां महाराज! देना पड़ता है, नहीं देंगे तो कैसे जियेंगे? इससे मालूम चलता है कि भयभीत होकर तुम सब कुछ करने को तैयार हों सामान्य जीव भी आ जाये, यदि वह अधिकारी है तो तुम मालाएं ले-लेकर घूमोगे और एक निग्रंथ वेष दिख जाये तो तुम्हें मिथ्यात्व झलकें अहो! तुम्हारी दृष्टि को धिक्कार हैं ध्यान रखना, जिन मुनिराज की चर्या में दोष होगा तो निगोद के पात्र वे होंगे, लेकिन आप तो पात्र मानकर ही उनकी सेवा कर रहे हों
भो चेतन आत्मा! मंत्र-तंत्र, प्रतिष्ठा आदि के उद्देश्य से पात्र को दान मत देनां आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कह रहे हैं कि स्व पर अनुग्रह हेतु जो आपने दान दिया, उससे आपका लोक में उपकार हुआ और जिस पात्र को दिया, उन्होंने साधना की, सामायिक की, स्वाध्याय किया है, उनका उपकारं 'अतिथिसंविभाग' गुण दाता का ही हैं श्रद्धा, भक्ति एवं आहलादपूर्वक दान देना दूसरा गुण हैं ध्यान रखना जीवन में, संतान का जन्म, पात्र दान, जिनेन्द्र की पूजा कभी नौकरों से नहीं कराई जाती है, स्वयं के हाथों की जाती हैं आगम में स्पष्ट लिखा है कि उस क्षेत्र में विहार कभी मत करो जिस क्षेत्र में चर्या न चलें वहाँ बैठे और भाव बिगड़ गये, तो परिणाम क्या होगा? नगर में रहकर स्वतंत्र होकर चर्या करना श्रेष्ठ हैं श्रद्धापूर्वक आहार आप नहीं दोगे तो गुण तुम्हारा नष्ट हो गयां तीसरा गुण है तुष्टिं कुछ लोगों के भाव खराब होते हैं छुल्लक जी आये हैं, ब्रह्मचारी जी आये हैं, मुनिराज नहीं मिले, आचार्य महाराज जी नहीं मिलें दान भी दिया, द्रव्य भी दिया और पुण्य भी नहीं मिला, क्योंकि संतुष्टि नहीं थीं अरे! विवेक रहित काम कर दियां संतुष्टि होना चाहिएं एक को दे लिया, संतोष करों विवेक कहता है कि कैसे देना है? कब देना है? रस चला रहे थे, मीठा चला दिया, और फिर दूसरे आए तो उस पर पानी चला दियां हम क्यों दे रहे थे आहार? जिससे कि उनका शरीर स्वस्थ रहें शरीर स्वस्थ रहेगा, तो संयम स्वस्थ रहेगां यहाँ विवेक की चर्चा चली, बोले-हम तो महाराज को बादाम खिलायेंगें भो ज्ञानी! गरिष्ठ हैं ठीक है जो लेकर आए, अच्छी बात है, आपने अच्छा किया, यह होना चाहिए:
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