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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 447 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
"समाधिमरण (मृत्यु-महोत्सव)"
इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या 175
अन्वयार्थ : इयम् = यह एका = एक पश्चिमसल्लेखना एव = मरण के अंत में होने वाली सल्लेखना ही मे = मेरें धर्मस्वं = धर्मरूपी धन कों मया = मेरें समं = साथं नेतुम् = ले चलने कों समर्था = समर्थ है इति = इस प्रकार की भक्त्या = भक्तिं सततम् = निरन्तरं भावनीया = भाना चाहिये
भो मनीषियो! अंतिम तीर्थेश वर्द्धमान स्वामी के शासन में हम सभी विराजते हैं तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की यह पावन-पीयूष वाणी अंतरंग में परम विशुद्ध भावों को उत्पन्न करने वाली हैं भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी उस अधिकार को प्रारंभ करने जा रहे हैं, जिस अधिकार के बाद सम्पूर्ण अधिकार समाप्त हो जाते हैं जब तक अधिकारदृष्टि है, तब तक सल्लेखनादृष्टि नहीं जब तक पूज्य-पूजक की दृष्टि है, तब तक समाधि नहीं हैं जहाँ समाधि है, वहाँ पूजा सुनिश्चित है, पर पूजा की भावना वालों की समाधि किंचित भी नहीं हैं सम्हलकर सुननां साधना का शिखर, साधना का फल, साधना का साम्राज्य, उसका नाम सल्लेखना हैं उस सल्लेखना की भावना सत्लेखना से ही होगी सल्लेखना अर्थात् समीचीन लेखनं शरीर और कषायों को सुखा डाला, शरीर को दुर्बल कर डाला, पर कषाय दुर्बल नहीं हुई तो, भो ज्ञानी! शरीर चला जाएगा, पर सल्लेखना नहीं हो पाएगी
भो ज्ञानी ! आज तक हमने जीवन में अनेक मरण किये हैं जैनदर्शन में बाल-बाल मरण, बाल मरण, बाल-पंडित मरण, पंडित मरण और पंडित-पंडित मरण इन पाँच प्रकार के मरण की चर्चा की गई हैं मिथ्यात्व के साथ जो मरण होता है, वह 'बाल-बाल मरण' हैं अहो ! इस आत्मा ने बार-बार बाल-बाल मरण किये हैं उस बार-बार मरण का ही प्रभाव है कि पंचम काल में आज सभी विराजे हैं बार-बार मरण नहीं किया होता, तो आज तुम्हारी बार-बार वंदना होतीं जन्म को सुधारने की बातें अनंत बार की हैं, लेकिन मरण को सुधारने की बात नहीं की पूरा जीवन तूने जीने के लिए नष्ट कर दिया, परंतु मरने के लिए कुछ भी नहीं
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