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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज
Page 389 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 किसी को विकारी नहीं बनाती, भिखारी भी नहीं बनाती, परन्तु दृष्टि दोनों को विकारी या भिखारी बना देती हैं अहो ज्ञानी! एक दरिद्री विकारी है, एक दरिद्र होकर भी भगवान है, जिसे आप पंचपरमेष्ठी में लख रहे हों भिखारी के पास तो कम से कम भीख माँगने का एक कटोरा होता है परन्तु मुनियों के पास तो एक कटोरा एवं वस्त्र भी नहीं हैं बताओ इनसे बड़ा दरिद्र कौन होगा ? विकारी की आँखें भिन्न होती है और भिखारी की
आँखें भिन्न होती हैं देखो, दृष्टि में बंध है, दृष्टि में संवर है, और दृष्टि में निर्जरा हैं सृष्टि में कुछ नहीं हैं एक व्यक्ति को बेटी, एक व्यक्ति को भगिनी और एक व्यक्ति को पत्नी दिख रही हैं अहो ज्ञानी ! आँखें वही हैं यदि स्त्री भोग का हेतु है, तो माँ भोग का कारण क्यों नहीं दिख रही है ? वेद से देखो तो स्त्रीवेद हैं यदि प्रत्येक नारी को माँ के रूप में देखने लगे तो विकार है ही कहाँ ? भगिनी/सुता के रूप में देखो तो विकार हैं कहाँ ? विकार तो दृष्टि में है, देखने के तरीके में है, स्वभाव में नहीं हैं इसलिए वस्तु से बंध नहीं, वस्तु से निबंध नहीं दृष्टि से बंध है, दृष्टि से निबंध हैं इसे ही बदलना हैं
भो ज्ञानी ! कषाय चेहरे पर नहीं होतीं वह पुद्गल का विकार नहीं, आत्मा का विकार है, आत्मा की विभाव-अवस्था हैं कषाय-परिणति यानी आत्मा के विभावगुण की परिणति चल रही हैय क्योंकि, ज्ञान-दर्शन भी साथ में चल रहा हैं कषाय को अपना मानने के चक्कर में जीव अपने ज्ञान को भी अपना मानना भूल जाता हैं अरे! परिणति आत्मा की है, लेकिन विकार से मिश्रित हैं अनादि की भूल के वश, अनादि के कर्मबंध के कारण जीव के रागादिक-परिणाम होते हैं और रागादिक-परिणाम के कारण कर्म का बंध होता हैं अनादि अज्ञान, अविद्या, अविरति और प्रमाद के वश जीव के अंदर विभावभाव उत्पन्न होते हैं 'कुन्दकुन्द स्वामी 'समयसार' में लिख रहे हैं
जह णाम कोवि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणिन्तां वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रायकरणं च 155
लोगों के साथ कुशील तब तक रहता है, जब तक कुशील का भान नहीं होता हैं जीव जब समझ लेता है कि अहो! इससे तो मेरा बहुत घात हो रहा है, मेरा पूरा संयम-धर्म नष्ट हो रहा है, तो वह धीरे से प्रयास करके कुसत्ता से अलिप्त हो जाता हैं
भो ज्ञानी! मुमुक्षु को विभाव-के-स्वभाव का परिचय जहाँ हो जाता है तो वह स्वभाव के परिचय की ओर चल देता हैं पर जिसने श्रद्धापूर्वक विभाव को नहीं छोड़ा, वह स्वभाव के स्थान पर पहुँचकर भी विभाव का ही वेदन करेगां संयम के वेष में तो रहेगा, पर भावों को असंयम के पास बिठाएगां इसी का नाम परिणति-का-व्यभिचार हैं माँ जिनवाणी कह रही है- बेटा! जिसने शिक्षाव्रतों व शीलों में अपने आप को पका
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