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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 376 of 583 ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
"छोड़ो रात्रि भोज ”
इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्यं सकलासंयमविरहाद्भवत्यहिंसाव्रतं पूर्णं 138
अन्वयार्थः
यः इति = जो इस प्रकारं नियमितदिग्भागे
मर्यादा की हुई दिशाओं की सीमा में प्रवर्तते = बर्ताव करता हैं तस्य = उस पुरुष के ततः बहिः = उस क्षेत्र से बाहिरं सकलासंयमविरहात् = समस्त ही असंयम के त्याग के कारणं पूर्णम् अहिंसाव्रतं भवति = परिपूर्ण अहिंसाव्रत होता है
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तत्रापि च परिमाणं ग्रामापणभवनपाटकादीनां
प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात्ं 139
अन्वयार्थः च तत्रापि
परिमाणं प्रविधाय = परिणाम करकें देशात् = मर्यादित क्षेत्र से बाहरं नियतकालं विरमणं करणीयं = त्याग करना चाहिएं
और उस दिग्ग्रत में भीं ग्रामापणभवनपाटकादीनाम् = ग्राम, बाजार, मकान मुहल्लादिकों कां
= किसी नियत समय पर्यन्तं
इति विरतो बहुदेशात् तदुत्थहिंसा - विशेष - परिहारात्ं तत्कालं विमलमतिः श्रयत्यहिंसां विशेषेणं 140
अन्वयार्थः
इति = इस प्रकारं बहुदेशात् विरतः बहुत क्षेत्र का त्यागीं विमलमतिः = निर्मल बुद्धिवाला श्रावकं तत्कालं = उस नियमित काल में तदुत्थहिंसा विशेष परिहारात् = मर्यादित क्षेत्र से उत्पन्न हुई हिंसा - विशेष के त्याग सें विशेषेण अहिंसा = विशेषता से अहिंसा व्रत को श्रयति = अपने आश्रय करता हैं
मनीषियो! अंतिम तीर्थेश वर्द्धमान स्वामी की पावन - पीयूष देशना हम सभी सुन रहे हैं आचार्य भगवान् अमृतचन्द्रस्वामी बहुत सहज कथन कर रहे हैं, कि खेत की रक्षा बाड़ी से और संयम की रक्षा शील से होती है, शील के अभाव में संयम की सुरक्षा संभव नहीं हैं अतः तत्त्व को समझना और तत्त्व को समझाना दोनों अलग-अलग चीज हैं तत्त्वज्ञान में लीन जीव कभी तत्त्व का व्याख्यान नहीं करता और जब तत्त्व का
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