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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 381 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
अहो ज्ञानी! संयम की, शील की दीवारें खड़ी कर दो, तो कहीं पर भी झगड़ा नहीं होगां यदि तुम्हारे परिग्रह का परिमाण नहीं है तो आस्रव हो रहा हैं अहो! 'रावण के जीव ने बहुत दुराचार किया था, नरक में पड़ा हुआ है, अच्छा हुआ, ऐसा नहीं कहना चाहिएं आप तो नहीं गए, पर आपने अपना मन नरक में भेज दिया और रावण के जीव को मार दियां अपनी मति से पूछो, दुर्मति हो गयी थीं पिटते हुए को तुमने और पीटा, तो बंध होगां मनीषियो! बंध-अपेक्षा चाहे स्वर्ग हो, चाहे नरक हो, चाहे तिर्यच हो, चाहे मनुष्य हो, लेकिन चतुर्गति बंध ही हैं दिग्व्रत में पूरे जीवन के लिए सीमा की जाती है और देशव्रत में सीमा नहीं की जाती हैं विमलमति वे ही बन पाएँगे जिन्होंने श्री व श्रीमती से अपनी मति हटा दी हैं जब तक इन दो में मति जाएगी, तब तक विमलमति होना कठिन हैं
भो ज्ञानी! सबके बीच में रहकर भी स्वतंत्रता का वेदन करना ही मुमुक्षु-दृष्टि हैं परतंत्रता में रहकर भी स्वतंत्रता का ध्यान रखना, यही मुमुक्षु की दृष्टि है और जो स्वंतत्र-स्वभावी होकर भी परतंत्रता मानकर बैठ चुका है, यही बहिरात्म-दृष्टि हैं स्वतंत्रता के शब्द से स्वच्छंदी मत बन जानां यहाँ शरीर के संबंधों का
नहीं कर रहे हैं यहाँ शरीर में स्वभाव-दृष्टि से हटा रहे हैं 'शरीर स्वभाव नहीं हैं। इतना विचार भी आ गया तो समझ लो कि जीवन में कभी अशांति आ नहीं सकतीं जब तक हम किसी से जुड़े होंगे या किसी को जोड़ कर रखेंगे, तब तक हम निज से नहीं जुड़ पायेंगें भगवान महावीर स्वामी के विकल्प ने गौतम स्वामी को केवली नहीं बनने दियां जब प्रभु का राग भी प्रभुता को उत्पन्न नहीं होने दे रहा है, तो भोगों का राग तुम्हें भगवान् कैसे बना देगा? पहले भोगों का राग छोड़ो, भगवान् में राग लगाओ और जब भगवत्ता उत्पन्न होने लगेगी तो भगवान् का राग भी छूट जाएगां छोड़ना अच्छा नहीं लगता, तो ग्रहण कर लों आप तो संयम, चारित्र को ग्रहण कर लों जब चारित्र ग्रहण कर लोगे, तो अचारित्र अपने आप छूट जाएगां
मनीषियो! आचार्य भगवान् ने अनर्थदण्ड के पाँच भेद कहे हैं अपध्यान, पापोपदेश, प्रमाद-चर्या, हिंसा-दान व दुःश्रुति, जिनके माध्यम से स्वहित तो किंचित भी नहीं हैं दूसरे के अहित के बारे में सोचना अपध्यान हैं कभी-कभी कितना विचित्र चिंतवन चलता है? देखना संसार की दशां प्रभु ने दे दिया वरदान कि जो चाहो वह सब मिलेगा, पर पड़ोसी को दुगुना मिलेगां बस, प्रभु! यही तो संकट हैं अपने दुःख से दुःख कहाँ ? हमें तो पड़ोसी के सुख से बहुत बड़ा दुःख हैं ठीक है, जो-जो मैं सोचूँगा, वो दुगना होगां प्रभु! मेरा एक मकान हों तो पड़ोसी के दो हो गएं मेरी दो संतान हों पड़ोसी के चार हो गयीं जहाँ उसने पूरा माल खजाना भर लिया, अब देखना उसकी दुर्मति, कहता है- भगवन् ! मेरे द्वार पर एक कुँआ खुद जाएं अहो!
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