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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 356 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
बरसते हों, वहाँ वात्सल्य टूट जाता हैं भगवान् अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि तुम्हारे जीवन में जब तक परिग्रह का विसर्जन नहीं है, तब तक वात्सल्य संभव नहीं, क्योंकि परद्रव्य का संचय-भाव ही तो दूसरे के प्रति रोष उत्पन्न कराता हैं यह मेरा हो जाये, ये मेरे हो जायें-इसके पीछे तो आपको धर्म व धर्मात्मा नजर ही नहीं आते
भो ज्ञानी! जैनसिद्धांत को समझों जिसका जितना क्षयोपशम होगा, उसको उतना मिलेगां अब चाहे तुम कितनी ही ईर्ष्या करो, दाह करो, स्थिरता लाओ; लेकिन ध्यान रखो, जब अशुभ-कर्म का बंध होगा, तो जो तुम्हारे पुण्य का द्रव्य था वह भी ईर्ष्या करने से नष्ट हो जावेगां मनीषियो! जब तक निज भावों में निर्मलता नहीं है, तब तक तीर्थ की वन्दना भी तुझे पावन नहीं कर पायेगी और निज की परिणति निर्मल है, तो तीर्थ की वंदना भी निमित्त बन जायेगी इसलिये ध्यान रखना, द्रव्य की प्राप्ति प्रभु की प्राप्ति किसी की ईर्ष्या से नहीं बल्कि इसकी प्राप्ति जीव की तपस्या से होगी कर्तृत्व-भाव में उलझकर स्व-पर के परिणामों में कलुषता उत्पन्न कर देना, यह बहुत बड़ी हिंसा हैं अतः, परिग्रह का सबसे बड़ा हेतु आर्त्त और रौद्र ध्यान हैं मोक्ष के हेतु तो धर्मध्यान व शुक्लध्यान हैं अब यथार्थ बताना कि जीवन के कितने क्षणों में धर्मध्यान होता है?
भो मनीषियो! प्रश्न है कि एक साथ पुत्र रत्न, चक्ररत्न और भगवान् को कैवल्य की प्राप्ति ये तीनों तुम्हारे सामने आ रहे हैं, बताओ आप क्या करोगे ? कामपुरुषार्थ का फल भी सामने पड़ा हुआ है, अर्थपुरुषार्थ सामने खड़ा हुआ है और धर्मपुरुषार्थ प्रतिफलित हो रहा हैं आप अंतरंग से प्रश्न करो कि मेरी विशुद्धता कितनी है, मेरी निर्मलता कितनी है ? बेटे के जन्म का उत्सव नहीं किया, तो कोई क्या कहेगा? फिर चक्ररत्न को सँभालों परंतु भरतेश चक्रवर्ती कहेगा कि यह सब तुच्छ हैं मना लूँगा बेटे के जन्मोत्सव को, और चक्ररत्न प्रकट हो चुका है तो जो पुण्य मेरी सत्ता में है, वह कहीं जाने वाला नहीं है, इसलिये मैं सर्वप्रथम परमेश्वर की आराधना करने जाऊँगां नगर में घोषणा कर दी कि भगवान, तीर्थेश, आदिब्रह्म आदीश्वर स्वामी को कैवल्य की प्राप्ति हुई है और कैलाश पर्वत पर हम सभी वंदना करने जायेंगें भगवान् जिनेन्द्र की वंदना करने के बाद कहता है कि, चलो अब चक्ररत्न और पुत्ररत्न का भी उत्सव मना लें
भो ज्ञानी! पर्युषण पर्व कह रहे हैं कि सबसे बड़ा रत्न तो दस लक्षण धर्म हैं सबसे बड़ा धर्म रत्नत्रय-धर्म हैं और उस रत्नत्रय धर्म की साधना के लिये संस्कार कैसे उत्पन्न हों, सोच लेना, अन्यथा सारा जीवन निकल चुका है आर्त्त और रौद्र ध्यान में अब रत्नत्रय की सिद्धि के लिये स्वयं के जीवन में दया लाओ, करुणा लाओ, तो नियम से स्वपद की प्राप्ति होगी
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