________________
पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
:
पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 337 of 583
ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
आत्मा को कितना ही बैंक लो, पर ऐसा कोई समय नहीं जब तेरी आयु का कपूर न उड़ रहा हो, प्रतिक्षण उड़ता हैं
भो ज्ञानी ! परिग्रह का संचय भी तेरी आयु को बचाने वाला नहीं हैं आप कितनी व्यवस्थाएँ कर लो, वज्र-पटल बना लेना, जमीन के अंदर घुस जाना, पर आयु-कर्म तो आएगा हीं अहो ! परिग्रह का संचय आप कितने दिनों के लिए कर रहे हो ? बताओ, चार मंजिल भवन में तुम कितने दिन सो पाये हो ? जब कि कर्मसिद्धांत कह रहा है कि हमने आपको भवन दिया है, जब तक आयु है तब तक तुम इस मकान में बैठकर सुख-चैन से प्रभु का नाम लेनां परन्तु आपने यहाँ आकर इसका दुरुपयोग किया और गंदा कर डाला ऐसे ही निर्मल पर्याय रूपी भवन तुझे प्राप्त हुआ है, परन्तु तुमने विषय - कषाय की कीचड़ से इस भवन को इतना मलिन कर दिया कि उस कर्म को भी सोचना पड़ता है कि इस निकृष्ट जीव को मैं मनुष्य का आयुकर्म कैसे दूँ ?
अहो ज्ञानी! जिससे सिद्ध बना जाता है, उस सत्य स्वरुप को समझों असत्य के पीछे सत्य का नाश मत करों यदि इस पर्याय में संभल गये, तो अनंत पर्यायों से बच जाओगें इसलिए परिग्रह में धर्म मत मानो और परिग्रह की बात को भी धर्म मत मानों मनीषियो ! धर्म वीतराग है और जिनेंद्र की वाणी वीतराग हैं सम्यकदृष्टि को अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल प्राप्त हुआ है, लेकिन उस जीव से कह देना कि उस अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल में तुझे नियम से दिगम्बर होना पड़ेगा हमारे आगम में पाँच प्रकार के वस्त्रों की चर्चा की है, लेकिन नमोस्तु - शासन कहता है कि भगवान् ऋषभदेव ने छल - मल (छाल - माल) के वस्त्रों को तो छोड़ दिया थां अहो दिगम्बर योगी! अब तुम छाल का वस्त्र भी धारण मत करो, क्योंकि माया, मिथ्या, निदान यह तीन शल्य हैं, यही आत्मा की छाल हैं, इसको भी धारण मत करों यह मोक्षमार्ग छल का नहीं, चल का नहीं, दल का नहीं, यह तो सत्य स्वरूप का हैं यहाँ तो आत्मबल की आवश्यकता होती हैं जो आत्मबली नहीं होता, पर वैसा दिखाना चाहता है, वह छलिया होता हैं छल का बल सिनेमाघरों में आ सकता है, परंतु छल का बल भगवती आत्मा के सामने कार्यकारी नहीं होतां
भो ज्ञानी ! एक पति-पत्नी योगी के चरणों में दर्शन करने गये मुनिराज ने कहा अब पर्याय बहुत निकल गयी, थोड़ा तो संयम के बारे में सोच लों बोले-महाराज! मेरा तो जोड़ा अमर हैं इसे मैं कैसे छोड़ सकता हूँ? अहो ! कोई जोड़ा नहीं हैं कमा के ला रहे हो, इसलिए जोड़ा हैं वाह महाराज ! तुम्हें तो घर दिखता ही नहीं है, हमसे पूछो कि घर कैसे चलाना पड़ता है ? अहो ! कोल्हू के बैल में और हम में अंतर इतना है कि उसके पूँछ और सींग हैं बाकी दोनों के राग और द्वेष की पट्टी लगी है और बेचारा दुनियाँ में घूम आएगा, लेकिन सोएगा विदिशा में महाराज ने कहा- देखो! बात मान लो नहीं महाराजं हम तो दर्शन करने आएँ है, आप हमें चिंता में मत डालों ओहो ! कर्तत्वबुद्धि को छोड़ दो, यह कर्तत्वदृष्टि ही मिथ्यादृष्टि हैं
Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
-
Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com
For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com