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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 341 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
आवश्यकता है अर्थात् जीवन के सत्य को वही समझ सकता है जो मध्यस्थ होकर जिया हैं आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने ग्रंथराज 'मोक्षशास्त्र' (तत्वार्थ सूत्र) और आचार्य श्री अमितगति स्वामी ने 'द्वात्रिंशतिका सामायिक पाठ' में प्राणीमात्र के प्रति मैत्री, करुणा, माध्यस्थ्य-भाव एवं प्रमाद-भाव की चर्चा की हैं दुःखित प्राणी को देखकर उसके दुःखों को दूर करने के भाव होना, मैत्री-भाव हैं मैत्री-भाव का तात्पर्य, प्राणियों के गले लगना अथवा उनसे हाथ मिलाना नहीं है, बल्कि उनके जीवन की रक्षा करना तथा उनके कष्टों से उन्हें मुक्त कराने का नाम मैत्री-भाव हैं परंतु जैनदर्शन कहता है कि जब तक स्वकल्याण की दृष्टि नहीं बनेगी, तब तक पर कल्याण भी तुम्हारे द्वारा नहीं हो सकतां मुझे तो पहले समाज और राष्ट्र की सेवा करना है, पर-का कल्याण करना है, भो चैतन्य! यह भाषा बदल दो, क्योंकि मुमुक्षु की दृष्टि होती है कि मैं दूसरे का हित करूँगा तो मेरा स्वयं का हित ही हो तो जायेगां आपने किसी गरीब को दान दिया ताकि उसकी गरीबी दूर हो जाएं भो ज्ञानी! धन भी गया और निजकल्याण भी गयां परंतु आपने उस जीव की तो गरीबी दूर करने और स्वयं का लोभ दूर करने के हेतु से दान दिया तो आप ज्ञानी हैं, क्योंकि जीव पर-कल्याण से भी निज कल्याण खोजता है और अज्ञानी निज कल्याण को भी पर कल्याण में लगा देता हैं इस प्रकार विवेक के साथ आपने दान दिया है, तो कल्याण निहित हैं उमास्वामी महाराज ने पर-कल्याण को 'दान' कहा ही नहीं हैं उन्होंने तो स्व-पर कल्याण के लिये जो सुद्रव्य का दान दिया जाता है, उसे दान कहा हैं जब आप अपने द्रव्य का दान करते हो, परिग्रह को छोड़ते हो उस समय यह मात्र मत सोचना कि मैंने इनका कल्याण किया हैं यह सोचना कि मैंने स्व–पर का कल्याण किया है, उसकी आवश्यकता की पूर्ति हो गयी और मेरी अनावश्यकता छूट गयीं
भो ज्ञानी! आप त्याग तो करना, दान तो देना, लेकिन पश्चात्ताप के लिये नहीं मालूम चला कि देने में तो शुभ-आस्रव इतना नहीं कर पाया जितना पश्चाताप में अशुभ-आस्रव कर लियां घर में द्रव्य कम बचा है, लेकिन सोच विशाल बन रही हैं जितना विकल्प करोगे, आस्रव उतना ज्यादा होगां व्यक्ति हजार रुपए कमाने का विचार करके बाजार में निकलता है, पर नौ-सौ ही कमा पाता है, तो उसे नौ सौ की अनुभूति नहीं होती, सौ रुपए कम मिल पाए, इस पर जरूर पछताता हैं अरे! इस पर्याय में आपको जितना पुण्य मिला, जितना सुख मिला है, उसको तो अनुभव नहीं कर पा रहा है परन्तु भूत के दुःखों को देख रहा है, भविष्य के सुखों को देख रहा है, इसलिये वर्तमान में दुःखी हो रहा हैं भूत के दुःखों का चिंतन कभी-कभी बहुत गहरा होता हैं नगरसेठ बनने का उसे आनन्द नहीं मिल पाता, क्योंकि उसे भूत की याद सता रही है कि अमुक व्यक्ति ने मेरा अनादर किया था वही ईर्ष्या आज काम कर रही हैं अरे भाई! यदि वे परिणाम तुम याद करते रहोगे, तो तुम्हारी परिणति कभी निर्मल हो नहीं पाएगी अरे! भूत के कुसंस्कारों का स्मरण नहीं करना भो ज्ञानी! सैंतालीस शक्तियों में 'प्रकाशत्व शक्ति' कहती है कि अपने अंदर का प्रकाश करों धन्य हो दीपक को, जो
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