________________
पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज
Page 342 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 जड़ होकर भी जड़ और चैतन्य दोनों को प्रकाश देता हैं यदि तेरा चैतन्य ज्ञान- दीप तेरे अंदर के भवन में प्रकाश नहीं कर पाए तो प्रकाशत्व-शक्ति कैसी? ।
भो ज्ञानी आत्माओ! अब उस दीप को अंदर ले जाकर देखो कि मेरे अंतरंग में कौन-कौन से द्रव्य रखे हुये हैं ? अनंत- ज्ञान, दर्शन-वीर्य-सुख से संपन्न भगवती-आत्मा! तुम पुद्गल के टुकड़ों को कहाँ खोज रहे हो? कोई देने में हर्षित हो रहा है, कोई लेने में हर्षित हो रहा है, परंतु 'प्रकाशत्व शक्ति' कहती है कि हम तो सबको दिखा रहे हैं यहाँ का पेन आपकी जेब में पहुँच गया, उस पेन से पूछना कि तू कहाँ गया है ? वह कहता है कि स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव मेरा चतुष्ट्य मेरे में है; मैं कहीं गया ही नहीं हूँ पर देखो, भोले भगवान् उस जड़ पेन को प्राप्त कर प्रसन्न हो रहे हैं पेन कहेगा कि धन्य हो मेरे सौभाग्य को, कि मेरे द्वारा यह भगवान्-आत्मायें खुश हो रही हैं पंडित दौलतराम जी लिखते हैं-"पुण्य पाप फल माँहि, हरख बिलखो मत भाई, यह पुद्गल पर्याय, उपजि विनसै बिरनाई अहो, सुखी जीव भी दुःखी है और दुखीजीव दुःखी हैं ही एक पकड़े-पकड़े दुःखी है, दूसरा छोड़े-छोड़े दुःखी हैं तीसरा न पकड़े है न छोड़े है, मात्र देखते-देखते ही दुःखी हैं क्योंकि उनके पास छोड़ने को कुछ नहीं है, पर बेचारे देखते-देखते ही दुःखी हो रहे हैं
भो चेतन! सच्चिदानंद चैतन्य की प्राप्ति तभी होगी, जब हम अचेतनों से दूर होंगें धन, धान्य, स्त्री, पुत्र आदि स्थूल बातें अब पुरानी हो गयीं राग तेरा भाव नहीं है, भाव का अर्थ होता है पदार्थ, और भाव का अर्थ होता है परिणामं राग मेरा भाव नहीं हैं राग मेरा स्वभाव नहीं है, जो 'मेरा' नहीं, वह सब 'पर' होता है,
और जो 'पर' है, उसे चारों तरफ से मैं घेरे हुये हूँ उसी का नाम परिग्रह हैं ऐसे परभाव रागादिक विकारी-भाव और एक सौ अड़तालीस कर्म-प्रकृतियाँ आदि सब मेरे स्वद्रव्य नहीं हैं इसी कारण अरिहंत परमेश्वर तेरहवें गुणस्थान में विराजकर उस पर-द्रव्य को नष्ट करने में लगे होते हैं चौदहवें गुणस्थान में फिर वे इस देहरूपी-परिग्रह का भी परित्याग किये होते हैं उनका नाम है अयोगी-केवली भगवान् अर्थात्
गों का भी परित्याग कर दिया है और अब बचा आय कर्म मात्र का परिग्रह, इसलिये वे भी परिग्रही हैं और जब आयु कर्म का परिग्रह नष्ट हो जाता है तो सम्पूर्ण कर्मों का अभाव हो जाता हैं इसलिये नियोगी, निष्परिग्रही, निष्फल, निष्कलंक, अशरीरी भगवती-आत्मा सिद्ध-परमेश्वर हैं जिसकी प्राप्ति के लिये आपको योगी बनना पड़ेगां योगी बने बिना विशुद्धात्मा बनना संभव नहीं
भो ज्ञानी! भगवान् अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि ममत्व-परिणाम और पर-द्रव्य के संयोग की दृष्टि जितनी गहरी होती है, उतनी ही संक्लेशता की गहराई होती हैं जिसका व्यापार जितना गहरा होगा, उसके छल-छिद्र उतने गहरे होंगें जिसकी गहरी कमाई, उसकी गहरी कषायं भो ज्ञानी! जिसकी संचय की दृष्टि आ जाती है, वह व्यक्ति कभी सुखी नहीं रह पायेगां न वह अच्छा खा पायेगा, न खिला पायेगा; क्योंकि उसको
Visit us at http://www.vishuddhasagar.com
Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com